सोमवार, 16 सितंबर 2013

परिपूर्ण होना ही आनन्द


जड़ जगत से लेकर आत्म तत्व तक आनन्द संयोजन आर्ष-जीवन पद्धति का परम सत्य 


सुख भोगवादियों ने मात्र विषय की उपलब्द्धि को ही आनन्द समझ लिया । इन्द्रियों के भोग से जो अनुभव होता है , वह तो आनन्द का प्रतिभासित सत्ता मात्र है । आनन्द यह नहीं है , बिलकुल पृथक है । इस धरा पर आनन्द की इयत्ता मानने वाला व्यक्ति उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता । इन भोगवादियों ने प्रार्थना का यह अर्थ लगाया कि जिस भौतिक उपलब्द्धि को हम सरलता से प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं । वह हमें परमात्मा दे देगा , क्योंकि हम उसका नाम लेते हैं या विशिष्ट अनुष्ठान अथवा कर्मकांड करते हैं । अगर इन्हें यह पता हो जाये कि परमात्मा इस प्रकार अन्याय नहीं करता है , वह फल कर्मों के अनुसार देता है ; तो बहुतों का भक्ति-भाव ही समाप्त हो जाये । यहाँ परमात्मा से प्रयोजन नहीं , अपितु अपने स्वार्थ से प्रयोजन है ।


सामान्यत: मनुष्य सोचता है कि यह आनन्द इच्छा -पूर्ति से आ रहा है । अस्तु वह बार-बार उस इच्छा को उत्पन्न करता है , भोगता है । परिणामत: क्षणिक अनभूति के पीछे अखंड आनन्द को खो देता है । स्मरणीय रहे कि जब एक इच्छा के निवृत्त होने से जो आनन्द आता है , अगर समस्त इच्छाओं की निवृत्ति कर दी जाये तो आनन्द की क्या मात्र होगी ? प्राचीन ऋषि ग्रन्थों में स्थान-स्थान पर इच्छा-निवृत्ति के लिए उपदेश मिलता है ।


कोई युवा जो श्रेष्ठ आचरण करने वाला हो , शासन करने में कुशल हो , सम्पूर्ण अंग और इन्द्रियां सुदृढ़ हों , उसे धन -ऐश्वर्य से पूर्ण सारी पृथ्वी मिल जाये तो वह मनुष्य-लोक का आनन्द है । इस विवेचन का अर्थ है कि समस्त सम्भावित आकांक्षाओं के प्रस्फुटित हो जाने से जो आनन्द होता है , उससे भी बड़ा विलक्षण ब्रह्मानन्द है । साथ ही इसके द्वारा यह बात भी स्पष्ट होती है कि उक्त आनन्द की प्राप्ति के लिए सम्पूर्ण बाह्य और आंतरिक विकास आवश्यक है । आनन्द की मांग मानव की चिरन्तन पिपासा है । आनन्द मानसिक या बौद्धिक अवधारणा न होकर अनुभूति की वह स्थिति है , जिसमें विराट की पवित्रता -सौन्दर्य का अवतरण धरातल पर करता है । आनन्द की उपलब्द्धि मानव -जीवन की सार्थकता है । जीवन का परम लक्ष्य आनन्द की प्राप्ति है ।



आनन्द की प्रथम अभिव्यक्ति जड़ प्रकृति में नाम रूपात्मक प्रत्ययों में अभिव्यक्त हो रही है । सरल रूप में प्रस्फुटित आनन्द का यह स्थूल रूप सांसारिक सत्ता में आकर्षण और रस-संचार करता है । उषा में प्रस्फुटित प्रकाश , उदय होता सूर्य , ताल में थिरकती चांदनी और सर्वदा प्रवहमान ऋतु-चक्र यह सब नित नवीन भा और आनन्द का संचार कर रहे हैं । सृष्टि की मनोहारिणी झांकी हजारों वर्षों से मानव के हृदय में सौन्दर्य-सृजन की प्रेरणा रही है और आज तक मानव-मन इससे ऊबा नहीं । मानव-जीवन का परमतत्व एवं लक्ष्य आनन्द में उसी प्रकार लय हो जाता है , जिस प्रकार सरिता समुद्र में मिलकर एकाकार हो जाती है ।


आनन्द की अभिव्यक्ति को इन धरातलों पर देखा जा सकता है । आनन्द अन्नमय धरातल पर जड़ जगत तक , प्राणमय धरातल पर जीव जगत तक , मनोमय धरातल पर मानव-जगत तक , विज्ञानमय धरातल पर ऋषि-जगत तक और आनन्दमय धरातल पर परम सत्ता तक है । जड़ जगत से लेकर आत्म तत्व तक आनन्द संयोजन आर्ष-जीवन पद्धति का परम सत्य है ।वैदिक सन्दर्भ में आनन्द न तो मानसिक अथवा बौद्धिक अवधारणा है और न कोई विशिष्ट मन:स्थिति । आनन्द एक दर्शन है । जिसका सम्बन्ध जीवन प्रत्येक पक्ष के साथ है । सांस्कृतिक मूल्य से जीवन का गतिमान होना , प्राणवंत होना , परिपूर्ण होना ही आनन्द है ।%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%

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