मंगलवार, 17 सितंबर 2013

वैदिक अध्यात्म और दर्शन का मूल ज्ञान

वैदिक अध्यात्म और दर्शन का मूल ज्ञान 


" ऋते ज्ञानान्न मुक्ति " अर्थात ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं होती है। नीतिकारों ने कहा है _ " ज्ञानेन हीन: पशुभि: समान: " । ज्ञान को जो महत्त्वपूर्ण स्थान वैदिक ऋषियों ने प्रदान किया है , वह अन्यत्र दुर्लभ है। वैदिक मार्ग ज्ञान -मार्ग है। समस्त वैदिक कर्मों की समाप्ति ज्ञान में है। कर्म का मूल और फल दोनों ही ज्ञान माने गये हैं। वेद से लेकर उपनिषद तक समस्त साहित्य में ज्ञान की चर्चा है। वेद-त्रयी ज्ञान,कर्म और उपासना की त्रिवेणी है। कर्म और उपासना से पहले ज्ञान को स्थान दिया गया है; या ऐसा भी कहा जा सकता है कि कर्मोपासना का मूल ज्ञान है। 

इस देश की जनता ने सर्वदा ज्ञानियों के चरणों में ही सिर झुकाया है _ चाहे वह ज्ञानी किसी भी जाति का सदस्य क्यों न रहा हो। कबीर,दादू,रैदास यद्यपि निम्न जाति से थे किन्तु उन्हें संतों का पद मिला तथा अन्य जाति के लोग भी उनके शिष्य बने। कहने का तात्पर्य कि वैदिक दर्शन , मानसिक और बौद्धिक स्वतन्त्रता का प्रतिपादक है। यह ज्ञान की अनन्तता स्वीकारता है। साथ ही यह बोध भी कराता है कि _ ' अन्ततोगत्वा मनुष्य अल्पज्ञ है और वह अंतिम सत्य का उद्घाटन नहीं कर सकता। ' ऋषि-गण अपने अल्प सामर्थ्य को जानते हैं और शिष्य को मिथ्या अहं से ग्रसित न होने का उपदेश करते हैं

 यही मिथ्या धारणा कि _ 'मैं पूर्ण ज्ञानी हूँ ' और शिष्य को अज्ञान में न डाल दे इसलिए गुरु कहते हैं _ ' हमारे द्वारा संकेत से बतलाये हुवे तत्त्व को सुनकर यदि तू ऐसा मानता है कि उसको भली-भांति जान गया है तो निश्चित ही तूने उसके स्वरूप को बहुत थोड़ा जाना है। उस परम तत्त्व का जो अंश तू है , वह समस्त देव-गणों में अर्थात मन, बुद्धि, प्राण, इन्द्रिय आदि में जो सत्यांश है, जिससे वे अपना काम करने में समर्थ हो रहे हैं ; उसको तू समग्रता समझ रहा है तो यथार्थ नहीं। ब्रह्म इतना इतना ही बस नहीं है ? इस जीवात्मा और समस्त विश्व-ब्रह्मांड में व्याप्त जो ब्रह्म की शक्ति है , उन सबको मिलाकर भी देखा जाए तो वह परम तत्त्व का एक अंश ही है। अत: तेरा समझा हुवा यह तत्त्व-बोध पुन: विचारणीय है ऐसा मैं मानता हूँ. 

जो वह समझता है कि वह सब जानता है ; उपनिषद कहता है कि वह कुछ नहीं जानता। और जिसे सतत यह आभास रहता है कि मैं समग्रता को कुछ भी नहीं समझ पाया हूँ, वह बहुत कुछ जानता है। ऋषियों ने कहीं भी ऐसा नहीं माना कि वे कुछ भी कहते हैं , वह पूर्ण सत्य की अभिव्यक्ति है और उनका कथन मीमांसनीय नहीं है।कहीं भी ऐसा नहीं कहा गया कि तर्क और युक्ति को प्रमाण में न लेकर आँख मीचकर चलो। वैदिक दर्शन तर्क को ऋषि के रूप में स्वीकार करता है। संशय और भ्रम उपस्थित होने पर तर्क के प्रयोग करने का आदेश ऋषियों ने दिया है। इस प्रकार वैदिक अध्यात्म और दर्शन का मूल ज्ञान है। यह आर्य संस्कृति का प्रमुख आधार है। आर्य सभ्यता का गठन इसकी उपलब्धि के लिए क्या गया है। वैयक्तिक पारिवारिक आदर्श और सामाजिक संरचना का अक्ष-ज्ञान तत्त्व है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में से किसी को भी समाज का आधार नहीं कहा गया है।********************

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