मंगलवार, 17 सितंबर 2013

योग: कर्मसु कौशलम

अध्यात्म-चिन्तन के लिए उच्चतम सूक्ष्म बुद्धि चाहिए 




अध्यात्म की उपलब्धि सुनने और पढ़ने से नहीं होती। यह सब सुनते ही रहते हैं। रात-दिन हजारों वर्षों से सुन रहे हैं , फिर भी संतोषप्रद परिणाम नहीं निकला है। सच बात तो यह है कि हमने केवल सुनने को पुण्य समझ लिया, किन्तु श्रवण का विचार और मनन से भी सम्बन्ध है, यह आज तक नहीं समझ पाए। गीता में कहा गया है _ ' सुनने के बाद भी कोई उसे तत्त्वत: नहीं समझ सका है।'

वास्तव में योजना-बद्ध षड्यंत्र द्वारा अंध-विश्वास और अज्ञान फैलाया गया। पठन-पाठन और चिंतन का अधिकार छीन लिया गया। इसका भीषण दुष्परिणाम निकला कि धर्म और अध्यात्म जड़ हो गये। जड़ से क्या अर्थ है ? मृत अर्थात मरा हुवा। धर्म का शव ढ़ोया जा रहा है , जिसमें चेतना , शक्ति, विचार और कर्म नहीं , वह शव नहीं तो और क्या है ? यहाँ न अध्यात्म चेतना है , न आत्म-शक्ति और न ही दिव्य कर्म। ऐसी बात नहीं है कि हमारे पास बुद्धि न हो। वैज्ञानिक , कलात्मक , तार्किक , आविष्कारक आदि प्रत्येक प्रकार की बुद्धि है , जो युक्तिपूर्ण चिन्तन करना जानती है। केवल एक बात हमारी बुद्धि नहीं जानती कि अध्यात्म भी तर्क और प्रमाण का विषय है; जिसका सीधा सम्बन्ध जीवन की अवधारणा और कर्मों से है। केवल शास्त्र -श्रवण या पठन ही पर्याप्त नहीं है।


अध्यात्म-चिन्तन के लिए उच्चतम सूक्ष्म बुद्धि चाहिए। वेद में इस बुद्धि को मेधा कहा गया है। मेधा - बुद्धि के अभाव में सुना हुवा ज्ञान अज्ञान का ही विस्तार करता है। स्थूल बुद्धि न शब्दार्थ समझती है और न व्यंग्यार्थ । वह केवल इन्द्रिय-अनुकूलता को ही समझती है। उपनिषद में अध्यात्म की पात्रता के लिए चार विशेषताएं निश्चित की हैं _ दर्शन , श्रवण , मनन और निदिध्यासन । पहले आँख खोलकर देखना सीखो अर्थात अनुभव करना सीखो। दूसरों के अनुभव को सुनो और उससे अपने अनुभव को सम्पन्न करो। सोचने के उपरांत और मनन किए हुवे कर्म पर विचार करना चाहिए। विचार को सूक्ष्म करके व्यापक सन्दर्भ प्रदान करना चाहिए। फिर समग्र चेतना को उस दिशा में अग्रसर करें। आत्म-ज्ञान के लिए यह अनिवार्य पात्रता है। पात्रता अर्थात योग्यता ही कार्य-कुशलता की जननी है। इसके अभाव में किए गये कर्म अकुशल होने के साथ-साथ असफलता दायक होते हैं। इसका परिणाम जीवन में दुःख और चिंता का आना है।

गीता के शब्दों में कुशलता का अर्थ योग है। ' योग: कर्मसु कौशलम ' कर्म की कुशलता या कुशलता पूर्वक किये हए कर्म ही योग हैं। अत: दर्शन- श्रवण के लिए मानसिक पात्रता और योग्यता होनी चाहिए। सत्संग में आये सुना और चल दिए , इससे कुछ नहीं होगा। सुनने की पात्रता होनी चाहिए। उस परम तत्त्व को जानने की इच्छा सब करते हैं , उसके लिए जिज्ञासा करते हैं ,किन्तु जिज्ञासा करना नहीं जानते। अच्छे-अच्छे धीर पुरुष भी मन की सीमा में बद्ध हैं। उतना ही ग्रहण कर पाते हैं, जितना कि उनका मन है और वैसा ही समझते हैं , जैसा उनका मन है। पूर्वाग्रह से भरे मन में सत्य को ठहरने का स्थान नहीं मिलता। ऐसा व्यक्ति सब कुछ सुनते हुवे भी कुछ नहीं समझता।

वेदान्त से सारभूत अर्थ अध्यात्म को जिसने ने जान लिया , ऐसे शुद्ध साधक संन्यास-योग से अनंत काल तक ब्रह्मानंद में परम मुक्त होकर विचरण करते हैं।*******

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