आलोचना नहीं अपितु आत्मालोचन करना प्रगति का अग्रगामी कदम
आलोचना नहीं अपितु आत्मालोचन करना प्रगति का अग्रगामी कदम है। जो व्यक्ति पुरानी कुरीतियों को मिटा कर नये समाज की स्थापना का संकल्प लेकर आगे बढ़ता है , उसे अनेक विरोधियों का सामना करना पड़ता है। वे सत्कर्मों में बाधा डालते हैं। चतुरता और पराक्रम से उन पर काबू पाना चाहिए। नीच व्यक्ति के उपहास में कोई तथ्य नहीं रहता सम्पूर्ण झूठी आलोचनाओं का महात्मा ईसा पर भी कोई प्रभाव नहीं पड़ा। दुष्ट लोगों ने उन्हें शूली पर चढ़ा दिया , पर शूली पर चढ़ कर भी उन्होंने परमेश्वर से यही प्रार्थना की तथा वे उन अज्ञानियों के अपराध को क्षमा कर दें। दृढ़ - व्रती को पृथ्वी के समान सहिष्णु बनना चाहिए। धरती माता उन लोगों भी आश्रय देती है जो उसे खोदते हैं। सत्पुरुषों को दुष्टों की गाली सहन कर उन्हें प्यार देना चाहिए। सहिष्णु की अंत में विजय होती है।
आलोचना नहीं अपितु आत्मालोचन करना प्रगति का अग्रगामी कदम है। जो व्यक्ति पुरानी कुरीतियों को मिटा कर नये समाज की स्थापना का संकल्प लेकर आगे बढ़ता है , उसे अनेक विरोधियों का सामना करना पड़ता है। वे सत्कर्मों में बाधा डालते हैं। चतुरता और पराक्रम से उन पर काबू पाना चाहिए। नीच व्यक्ति के उपहास में कोई तथ्य नहीं रहता सम्पूर्ण झूठी आलोचनाओं का महात्मा ईसा पर भी कोई प्रभाव नहीं पड़ा। दुष्ट लोगों ने उन्हें शूली पर चढ़ा दिया , पर शूली पर चढ़ कर भी उन्होंने परमेश्वर से यही प्रार्थना की तथा वे उन अज्ञानियों के अपराध को क्षमा कर दें। दृढ़ - व्रती को पृथ्वी के समान सहिष्णु बनना चाहिए। धरती माता उन लोगों भी आश्रय देती है जो उसे खोदते हैं। सत्पुरुषों को दुष्टों की गाली सहन कर उन्हें प्यार देना चाहिए। सहिष्णु की अंत में विजय होती है।
हमारे सामने बहुत-सी उलझनें और समस्याएँ आती हैं। हमें उनको स्वयं सुलझाना चाहिए। नदी अपने मार्ग की बाधाओं से जूझ कर समुद्र से मिलती है। अत: हमें भी बाधाओं से लड़ना है। सच्चाई के लिए संघर्षशील बनना है। हमें अपने हृदयों में आशा की ज्योति जला कर अपने उद्देश्यों के लिए गतिमान रहना चाहिए। किसी की भी आलोचना से हमें अपने पथ से डिगना नहीं चाहिए। आलोचना करने का अभ्यास अपने आप से करना चाहिए। इससे अपने दुर्गुण समझ में आने लगते हैं। दुर्गुणों को दूर करने का प्रयास करने पर मन निर्मल होने लगता है, धीरे-धीरे हम प्रशंसा का पात्र भी बन सकते हैं। जो आचरण हम अपने प्रतिकूल समझते हैं , उन्हें दूसरे से बिलकुल भी नहीं करना चाहिए। श्रुति के अनुसार -- ' आत्मन: प्रतिकूलानि परेषाम न समाचरेत ' । अच्छा यह है कि जो कार्य हम दूसरों के लिए हितकर समझते हैं , उन्हें अपने लिए करें। बुराई से बचना, उसे त्यागना अच्छी बात है। इसका प्रयोग पहले स्वयं से ही करना चाहिए। दूसरे की गलती पकड़ने में भ्रम या भूल भी हो सकती है , पर अपनी बातें तो अपने को विदित ही होती हैं। जो त्रुटियाँ स्वयं की अवगत होती जाएँ , उन्हें सुधारने का प्रयत्न करना चाहिए। प्रयत्न एवं प्रयास तथा नित्य अभ्यास जारी रहेगा तो यह निश्चित ही धीरे-धीरे एक-एक करके दुष्प्रवृत्तियों से छुटकारा मिलना संभव हो सकता है।
जिसने अपने को सुधार लिया है , उसे दूसरे को कहने या सुधारने का अधिकार मिल जाता है। अपना स्वयं का निर्मल चरित्र ही इतना शक्ति-संपन्न होता है कि उसके सामने दूसरा टिक नहीं पाता। साबुन स्वयं घिस जाता है , पर दूसरे के कपड़े साफ़ करता है। अपने को विरोध सहना पड़े या बदले में आक्रमण होता हो , तो उसे सहना चाहिए , क्योंकि झंझट में केवल परामर्श दाता का ही अहित होता है , पर दुर्गुणों की ओर ध्यान न दिलाया जाये , उनकी परिणति से अवगत न कराया जाए , तो आदतें बिगडती ही जाएँगी और कुछ समय में इतनी परिपक्व हो जाएँगी कि छुडाये न छूटेंगी। सच्चे मित्र की यह एक अच्छी पहचान है कि वह अपने मित्र को बुराइयों से बचाता है। इसलिए आलोचना मित्रता का गुण है। एक प्रसिद्द उक्ति है--- ' निंदक नियरे राखिये आँगन कुटी बंधाए। बिन पानी साबुन निर्मल करे सुभाव । ' इसमें शत्रुता का भाव नहीं होना चाहिए , पर शत्रुता वह तब बन जाती है , जब बदनामी उसके साथ जुड़ जाती है।
वस्तुत: हर व्यक्ति या वस्तु के दो पक्ष हैं-- एक भला और दूसरा बुरा। एक काला और दूसरा उजला। समय के भी दो पक्ष हैं -- एक दिन और दूसरी रात। दोनों की स्थिति वैसे एक-दूसरे से भिन्न होती है। फिर भी दोनों को मिला कर ही एक समग्रता बनती है। मनुष्यों में गुण भी हैं और दोष भी हैं। किसी में कोई तत्त्व अधिक होता है किसी में कोई। हर किसी में गुण-दोष दोनों ही होते हैं। मात्रा की दृष्टि से कम और अधिक चाहे हो जाए। न कोई पूर्ण रूप से श्रेष्ठ है और न निकृष्ट। मात्रा का अंतर भले ही हो। सर्वथा निर्दोष कोई भी नहीं है, न कोई ऐसा है जिसे सर्वथा बुरा ही कहा जाए। अच्छाइयों की प्रशंसा होती है और बुराइयों की निंदा।
प्राय: लोग दूसरों की ही आलोचना करते हैं। अपने सम्बन्ध में अनजान ही बने रहते हैं। अपनी बुराई बहुत कम ही देख पाते हैं। अपनी बुराईयों का कारण व्यक्ति दूसरों को ही समझता है। भाग्य-दोष , परिस्थिति-दोष आदि कह कर मन को समझाता रहता है। अपने तो गुण ही दिखाई देते हैं। इसलिए व्यक्ति अपनी प्रशंसा ही करता रहता है। चापलूस लोग भी उसकी झूठी प्रशंसा करते रहते हैं। सामने की प्रशंसा से मनुष्य भ्रम में पड़ जाता है। उसमें अहंकार की वृद्धि होती है। तथा उसमें मिथ्या धारणा बन जाती है। ऐसी दशा में सुधार का प्रयास भी नहीं बन पाता। अत: आत्म-सुधार होना संभव नहीं हो पाता। इस प्रकार आत्म-आलोचन कोई विचारशील व्यक्ति ही कर सकता है। हमें आलोचना नहीं करनी चाहिए, अपितु आत्मालोचन करना चाहिए। इससे व्यक्ति में धीरे-धीरे सुधार आता जाता है। आत्मालोचन से हमारे जीवन में सुधार आ जाता है और हम सत-मार्ग की और चलने लगते हैं।&&&&&&&&&&&&
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