शनिवार, 28 सितंबर 2013

संसार विचारों का ही पतिरूप

प्रार्थना हमारे विचारों का परिवर्तित रूप  



यह संसार विचारों का ही पतिरूप है।विचार सूक्ष्म होते हैं,संसार की स्थूल वस्तुओं की रचना पहले किए गये विचार के अनुसार ही होती है। दर्शन-शास्त्र के अनुसार यह समस्त जगत परमात्मा के एक विचार का ही परिणाम है। वह विचार था --- ' एकोअहम बहुस्यामि ' । कोई विचार तब ही फलित होता है, जब उसके प्रति सच्ची निष्ठा हो और दृढ़ संकल्प हो। संसार में जो उन्नति , प्रगति और नये-नये परिवर्तन दिखाई देते हैं, वे सब विचारों के ही परिणाम हैं। अथर्ववेद में विचार-शक्ति को महाशक्ति कहा गया है-- ' त्वं नो मेधे प्रथमा ' अर्थात सद-विचार ही संसार की सर्वप्रथम सर्वश्रेष्ठ वस्तु है। विचार उत्पन्न करने का यंत्र हमारा मस्तिष्क है। विचारों की शक्ति का अनुमान करने में विज्ञान समर्थ नहीं हो पा रहा क्योंकि वह अत्यंत सूक्ष्म है और मशीनी शक्ति की पकड़ से परे है। किसी यंत्र द्वारा उन्हें पकड़ा और प्रयोग में नहीं लाया जा सकता क्योंकि इनका सम्बन्ध मानवीय चेतना से है, पदार्थ से नहीं

विचार एक शक्ति है, उसको अच्छे कार्यों में भी प्रयोग किया जा सकता है और मानवता को कलंकित करने वालों में भी नष्ट किया जा सकता है। गहनता से सोचने और उस इच्छित फल के लिए अपनी सम्पूर्ण ध्यान -शक्ति समर्पित कर देने से विचार बलवान हो उठते हैं। उनसे अधिक प्राण-शक्ति स्फुरित होती है। उसमें मस्तिष्क और हृदय --माइन्ड एंड हार्ट-- दोनों का बल काम करने लगता है। पूर्व विकसित इच्छा-शक्ति को विचारों में लीन कर देते हैं तो वे विचार तीव्र और गहन हो जाते हैं। वे बहुत शक्तिशाली और तुरंत फल देने वाले होते हैं। कोई भी ध्वंसात्मक अथवा रचनात्मक कार्य क्षण भर में सम्पन्न करने की शक्ति ऐसे ही विचारों में होती है।

चुम्बक को ताप , ताप को विद्युत्, विद्युत् को प्रकाश और प्रकाश को ध्वनि-तरंगों में बदला जा सकता है। अब क्योंकि विचार भी एक शक्ति ( एनर्जी ) है, इसलिए कोई संदेह नहीं कि उसे भी अन्य शक्तियों में बदला जा सकता है। विचार-बल से अग्नि, विद्युत्, प्रकाश ही नहीं अपितु ध्वनि और आकर्षण भी उत्पन्न किया जा सकता है। तन्त्र-साधनाओं में मारण, मोहन, उच्चाटन , अभिसार आदि अनेक विधानों का वर्णन मिलता है। यह सब विचार -शक्ति के नियंत्रित प्रयोग से ही होता है। विचार एक सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान सत्ता है। यह चेतन शक्ति है, इसलिए इसका मूल्य और महत्त्व भौतिक शक्तियों की अपेक्षा अनेक गुना अधिक है। अभिलाषा का क्रिया के साथ सम्मिलन होने पर उत्पादक शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। तथा शीघ्र ही फल की प्राप्ति होती है। यह क्रियात्मक विचार प्रणाली कही जाती है।


प्रार्थना हमारे विचारों का परिवर्तित रूप है। हमारी सामर्थ्य तथा बुद्धि की पहुंच सीमित है , संकल्प भी अपर्याप्त हैं। जहाँ हमारा विचार काम न दे , वहां उस दैवी शक्ति के सम्मुख हाथ फैलाया जा सकता है। उन्नति का पथ पूछा जा सकता है। हम परमात्मा से प्रार्थना करके उस विराट संकल्प का एक भाग प्राप्त कर सकते हैं । यदि कोई आदर्शवादी विचारधारा समूचे अन्तरिक्ष को आच्छादित कर ले तो एकता-समता का वातावरण सहज ही बन सकता है।bbbbbbbbbbbbbbbbbbbbbbbb



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