शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

मृतात्मा स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर में

मृतात्मा स्थूल शरीर से अलग होने पर सूक्ष्म शरीर में प्रस्फुटित 


जीव अमर है, उसकी मृत्यु का कोई प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। अविनाशी आत्मा सदा से है और सदा तक रहेगी शरीर की मृत्यु को हम अपनी मृत्यु मानते हैं। परिणामत: भयभीत होते रहते हैं। यदि अंत:करण को यह विश्वास हो जाए कि आज की तरह हमें आगे भी जीवित रहना है तब तो डरने की कोई बात नहीं रह जाती। मृत्यु का भय अन्य सब भयों से अधिक बलवान है , आदमी मृत्यु के भय से अत्यधिक कंपता रहता है। इसका कारण परलोक सम्बन्धी अज्ञान है। जीवन का प्रवाह अनंत है। हम अगणित वर्षों से जीवित हैं , आगे भी अगणित वर्षों तक जीवित रहेंगे। भ्रमवश मनुष्य यह समझ बैठा है कि कि जिस दिन वह गर्भ से उत्पन्न होता है तभी से उसका जीवन प्रारम्भ होता है। और जब हृदय की गति बंद हो जाने पर शरीर निर्जीव हो जाता है तो मृत्यु हो जाती है

जीवन और शरीर एक वस्तु नहीं हैं जैसे कपड़ों को यथा-समय बदलते रहते हैं, उसीप्रकार जीव को शरीर बदलने पड़ते हैं। तमाम जीवन भर एक कपड़ा पहना नहीं जा सकता , उसी प्रकार अनंत जीवन तक यह शरीर नहीं ठहर सकता। अतएव उसे बार-बार बदलने की आवश्यकता पडती है। स्वभावत: तो कपड़ा पुराना जीर्ण-शीर्ण होने पर ही अलग किया जाता है , पर कभी-कभी जल जाने, या किसी वस्तु में उलझ कर फट जाने , चूहों के द्वारा काटे जाने या अन्य कारणों से थोड़े दिनों में बदलना ही पड़ता है। शरीर साधारणत: वृद्धावस्था में जीर्ण होने पर नष्ट होता है , परन्तु बीच में ही कोई आकस्मिक कारण उपस्थित हो जाए , अल्पायु में भी शरीर त्यागना पड़ता है।

मृत्यु किस प्रकार होती है ? जब मनुष्य मरने को होता है , तो उसकी समस्त बाह्य शक्तियाँ एकत्रित होकर अन्तर्मुखी हो जाती हैं और फिर स्थूल शरीर से बाहर निकल पडती हैं। आचार्य श्रीराम शर्मा के अनुसार _ ' पाश्चात्य योगियों का मत है कि जीव का सूक्ष्म शरीर बैंगनी रंग की छाया लिए शरीर से बाहर निकलता है। भारतीय योगी इसका रंग शुभ्र ज्योति स्वरूप सफेद मानते हैं। जीवन में जो बातें भूलकर मस्तिष्क के सूक्ष्म कोष्ठकों में सुषुप्त अवस्था में पड़ी रहती हैं। वे सब एकत्रित होकर एक साथ निकलने के कारण जाग्रत एवं सजीव हो जाती हैं। इसलिए कुछ क्षण के अंदर अपने समस्त जीवन की घटनाओं को फिल्म की तरह देखा जा सकता है, इस समय मन की आश्चर्यजनक शक्ति का पता लगता है। उनमें से आधी भी घटनाओं के मानसिक चित्रों को देखने के लिए जीवित समय में बहुत ही समय की आवश्यकता होती है, पर इन क्षणों में वह बिलकुल ही स्वल्प समय में पूरी-पूरी मानस -पटल पर घूम जाती है। इस सबका जो सम्मिलित निष्कर्ष निकलता है कि सार रूप में संस्कार बन कर मृतात्मा के साथ हो लेता है ' जीव जैसी बहुमूल्य वस्तु का दुरूपयोग करने पर उसे उस समय मर्मान्तक मानसिक वेदना होती है। क्योंकि बहुमूल्य जीवन का प्राय: उसने वैसा सदुपयोग नहीं किया , जैसा कि उसे करना चाहिए था। उसी प्रकार म्रत्यु के ठीक समय पर प्राणी की शारीरिक चेतनाएं तो शून्य हो जाती हैं , पर मानसिक कष्ट बहुत भारी होता है। रोग आदि शारीरिक पीड़ा तो कुछ क्षण पूर्व ही , जबकि इन्द्रियों की शक्ति अन्तर्मुखी होने लगती हैं, तब बंद हो जाती हैं। मृत्यु से पूर्व शरीर अपना कष्ट सह चुकता है। बीमारी से या किसी आघात से शरीर और जीव के बंधन टूटने आरम्भ हो जाते हैं। डाली पर से फल उस समय टूटता है, जब उसका डंठल असमर्थ हो जाता है। उसी प्रकार मृत्यु उस समय होती है , जब शारीरिक शिथिलता और अचेतनता आ जाती है। ऊर्ध्व रंध्रों से प्राय: प्राण निकलता है मुख, नाक, आँख, कान प्राण उत्सर्जन के प्रमुख मार्ग हैं। दुष्ट-वृत्ति के लोगों के प्राण मल-मूत्रों के मार्ग से निकलते देखे गयें हैं। योगी ब्रह्म-रन्ध्र से प्राण त्याग करता है

मृतात्मा स्थूल शरीर से अलग होने पर सूक्ष्म शरीर में प्रस्फुटित हो जाता है। यह सूक्ष्म शरीर ठीक स्थूल शरीर की ही बनावट का होता है। मृतक को बड़ा आश्चर्य लगता है कि मेरा शरीर कितना हल्का हो गया है, वह हवा में पक्षियों की तरह उड़ सकता है और इच्छा मात्र से चाहे जहाँ आ-जा सकता है। स्थूल शरीर छोड़ने के बाद वह अपने मृत शरीर के आस-पास ही मंडराता रहता है। मृत शरीर के आस-पास प्रियजनों को रोता देखकर वह उनसे कुछ कहना चाहता है, पर उसमे वह सफल नहीं हो पाता। वह अपने अंग-प्रत्यंगों को हिलाता-डुलाता है, हाथ-पैर को चलाता है , पर उसे ऐसा अनुभव नहीं होता कि वह मर गया है। तब उसे प्रतीत होता है कि मृत्यु से डरने की कोई बात नहीं है। तथा यह शरीर -परिवर्तन की एक सामान्य सुख-साध्य क्रिया है।

जब तक मृतशरीर की अंत्येष्टि क्रिया होती है, तब तक जीव बार-बार उसके पास मंडराता रहता है जला देने पर वह उसी समय उससे निराश होकर दूसरी ओर मन को लौटा लेता है। किन्तु गाड़ देने पर वह उस प्रिय वस्तु का मोह करता है और बहुत दिनों तक उसके इधर-उधर फिरा करता है। अधिक अज्ञान और माया-मोह के बंधन में अधिक दृढ़ता से बंधे हुवे मृतक प्राय: श्मशानों में बहुत दिनों तक चक्कर काटते रहते हैं। शरीर की ममता बार-बार उधर खींचती है और वे अपने को सम्भालने में असमर्थ होने के कारण उसी के आस-पास रुदन करते रहते हैं। कई ऐसे होते हैं जो शरीर की अपेक्षा प्रियजनों से अधिक मोह करते हैं। वे मरघटों के स्थान पर प्रिय व्यक्तियों के निकट रहने का प्रयत्न करते हैं।

बूढ़े मनुष्यों की वासनाएँ स्वभावत: ढ़ीली पड़ जाती हैं, इसलिए वे मृत्यु के बाद बहुत जल्दी निद्राग्रस्त हो जाते हैं, किन्तु वे तरुण जिनकी वासनाएँ प्रबल होती हैं, बहुत काल तक विलाप करते फिरते हैं, विशेष रूप से वे लोग जो अकाल मृत्यु या आत्महत्या से मरे होते हैं। अचानक और उग्र वेदना के साथ मृत्यु होने के कारण स्थूल शरीर के बहुत से परमाणु सूक्ष्म शरीर के साथ मिल जाते हैं, इसलिए मृत्यु के उपरांत उसका शरीर कुछ जीवित , कुछ मृतक, कुछ स्थूल , कुछ सूक्ष्म-सा रहता है। ऐसी आत्माएं प्रेत रूप से प्रत्यक्ष -सी दिखाई देती हैं और अदृश्य भी हो जाती हैं साधारण मृत्यु से मरे हुवों के लिए यह नहीं है कि वे तुरंत प्रकट हो जाएँ , उन्हें इसके लिए बड़ा प्रयत्न करना पड़ता है और विशेष प्रकार का तप करना पड़ता है, किन्तु अपघात से मरे हुवे जीव सत्ताधारी प्रेत के रूप में विद्यमान रहते हैं और उनकी विषम मानसिक स्थिति नींद भी नहीं लेने देती। वे बदला लेने की इच्छा से या इन्द्रिय वासनाओं को तृप्त करने के लिए किसी पीपल के पुराने पेड़ की गुफा , खंडहर या जलाशय के आस-पास पड़े रहते हैं और जब अवसर देखते हैं, अपना अस्तित्व प्रकट करने या बदला लेने की इच्छा से प्रकट हो जाते हैं। इन्हीं प्रेतों को कई तांत्रिक शव-साधना करके या मरघट जगाकर अपने वश में कर लेते हैं और उनसे गुलाम की तरह काम लेते हैं। इस प्रकार बांधे हुवे प्रेत इस प्रकार के तांत्रिक से प्रसन्न नहीं रहते , अपितु मन ही मन अत्यंत क्रोध करते हैं और मौका मिल जाये तो उन्हें मार भी देते हैं। बंधन सभी को बुरा लगता है, प्रेत लोग छूटने में असमर्थ होने के कारण अपने मालिक का हुक्म बजाते हैं , पर सर्कस के शेर की तरह उन्हें इससे दुःख होता है। आबद्ध प्रेत प्राय: एक ही स्थान पर ही रहते हैं और बिना कारण जल्दी-जल्दी स्थान परिवर्तन नहीं करते।

साधारण वासनाओं वाले प्रबुद्ध चित्त और धार्मिक वृत्ति वाले मृतक अन्त्येष्टि-क्रिया के बाद फिर पुराने सम्बन्धी से सम्बन्ध तोड़ देते हैं और मन को समझाकर उदासीनता धारण कर लेते हैं। उदासीनता आते ही उन्हें निद्रा आ जाती है और आराम करके नई शक्ति प्राप्त करने के लिए निद्राग्रस्त हो जाते हैं। यह नींद-तन्द्रा कितने समय तक रहती है , इसका कुछ निश्चित नियम नहीं है। यह जीव की योग्यता के ऊपर निर्भर है। बालकों और मेहनत करने वालों को अधिक नींद चाहिए , किन्तु और बूढ़े और आरामतलब लोगों का काम थोड़ी देर सोने से ही चल जाता है। सामान्यत: तीन वर्ष की निद्रा पर्याप्त होती है। इसमें से एक वर्ष तक बड़ी गहरी निद्रा आती है , जिससे कि पुरानी थकन मिट जाए और सूक्ष्म इन्द्रियां संवेदनाओं का अनुभव करने योग्य हो जाएँ। दूसरे वर्ष उसकी तन्द्रा भंग होती है और पुरानी गलतियों के सुधार तथा आगामी योग्यता के सम्पादन का प्रयत्न करता है। तीसरे वर्ष नवीन जन्म धारण करने की खोज में लग जाता है। यह अवधि एक स्थूल विभाग है। कई विशिष्ट व्यक्ति छ: महीने में ही नवीन जीवन एवं जन्म प्राप्त कर लेते हैं। कयियों को पांच वर्ष तक लग जाते हैं। प्रेतों की आयु अधक-से-अधिक बारह वर्ष तक ही मानी जाती है। इस प्रकार दो जन्मों के बीच का अंतर अधिक-से- अधिक बारह वर्ष का ही हो सकता है। वस्तुत: सूक्ष्म शरीर ही पुन: जन्म प्राप्त करता है। जिनके सूक्ष्म शरीर मायाबद्ध एवं राग-द्वेष से संयुक्त होते हैं , उन्हें प्रेत के रूप में प्रतीक्षा करनी होती है। शेष सात्विक प्रवृत्ति के सूक्ष्म शरीर समय-बद्ध स्थिति के बाद पुन: जन्म प्राप्त करते हैं। कुछ विरल ही दिव्य आत्मा जीवन मुक्त हो जाती हैं।%%%%%%%%%%%%%%%%%



2 टिप्‍पणियां:

  1. सूक्ष्म शरीर (मन,बुद्धि,चित,अहंकार) द्वारा ही हम स्वप्न देखते हैं | स्वप्न दो तरह से देखते हैं एक सोते हुए एक जागते हुए | जागते हुए जो हम स्वप्न देखते हैं उन्हें ही संकल्प-विकल्प कहते हैं | स्वप्न देखने से कोई लाभ नही होता क्योंकि यह झूठे होते हैं | सोते हुए स्वप्न को हम रोक नही सकते लेकिन जागते हुए जो स्वप्न देखते हैं उन्हें रोकने का अभ्यास किया जा सकता है | आत्मा तो सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर दोनों में हैं | जब हम संकल्प-विकल्प रोकते हैं मन,बुद्धि,चित,अहंकार शून्य होने लगता है और आत्मा प्रकट होने लगती है |आत्मा ही सत्य है यह दोनों शरीर असत्य है | आत्मा के प्रकट होने से विवेक बुद्धि प्रकट होने लगती है | मन्त्र,जाप,प्रार्थना,दान आदि से सूक्ष्म शरीर शान्ति नही होगा बल्कि और हरकत में आयेगा | केवल स्थूल शरीर को सुख मिल सकता है पर आत्म शान्ति नही | इस लिए जब शास्त्र संसार को स्वप्न कहते हैं तो हमें समझ नही आता | जब हमारा ध्यान संसार में लगता है हम दुःख पाते हैं और जब आत्मा में लगता है तो आनंद पाते है

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  2. जय श्रीराम कारण शरीर को केसे साफ करे

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