गुरुवार, 19 सितंबर 2013

अर्जुन की स्थिति का गीता बड़ा सजीव चित्रण

अर्जुन बुद्धिमान है तर्कों का प्रयोग करना जानता 


महाभारत की घटना है । कुरुक्षेत्र में कौरव- पांडवों की सेना एक-दूसरे के सम्मुख खड़ी है और युद्ध प्रारम्भ होने वाला है । विभिन्न रथी महारथी अपने - अपने शंख बजाकर सैनिकों में उत्तेजना भर रहे हैं । अर्जुन ने अपने सखा- सारथि कृष्ण को दोनों सेनाओं के मध्य रथ खड़ा करने के लिए कहा । वह जानना चाहता था कि कौन -कौन महारथी पक्ष-विपक्ष में हैं । महाभारत की यह कथा बताती है कि अर्जुन ने जब दोनों पक्षों को देखा तो विषाद में दूब गया । अप्रतिम योद्धा , युग का महाबली , धुनुर्धर अर्जुन घबरा गया, उसके शरीर सर पसीना छूट पड़ा । अर्जुन की स्थिति का गीता बड़ा सजीव चित्रण करती है _ अथक परिश्रम करके अर्जुन ने युद्ध की तैयारी की थी । उसने पाशुपत अस्त्र को पाने के लिए कठोर तप किया था । युद्ध करके किरात-वेशी शिव को प्रसन्न करने का प्रयास किया था। सामरिक तैयारी के लिए कुबेर से ऋण लिया था । वह वीर पुरुष अर्जुन युद्ध जिसका स्वभाव था , विचलित हो उठा । उसने कहा _ हे कृष्ण ! राज्य-सुख की तो बात ही क्या है ? इस दृश्य को देखकर मुझे जीवन की आशा ही निरर्थक लगती है । अपने जनों को मारकर भूमि का राज्य तो क्या मुझे तो त्रैलोक्य के राज्य की भी आकांक्षा नहीं है । मैं भिक्षा मांग लूंगा किन्तु युद्ध रूपी इस पाप कर्म में प्रवृत्त नहीं हो सकता।

अर्जुन बुद्धिमान है तर्कों का प्रयोग करना जानता है । युद्ध के अनौचित्य को तर्क की भाषा में प्रस्तुत करता है । युद्ध कुलक्षय करेगा । कुल- धर्म , वर्ण- धर्म आदि नष्ट हो जाएगा । मर्यादा लुप्त होकर समाज में अव्यवस्था फैलेगी । अर्जुन प्रबल नैतिक तर्क देता है कि पूज्यों को मारने से हिंसा का पाप होगा । यद्यपि वह तर्क - बुद्धि से युद्ध के अनौचित्य को सिद्ध कर रहा है , किन्तु उसके अन्तरंग का एक भाग ऐसा भी है जो स्वयं तर्क से संतुष्ट नहीं है। विवेक के किसी बिंदु पर वह तर्क और युक्ति को निस्सार पाता है । अंत में उसे कहना पड़ा कि _ " मेरा स्वभाव अर्थात स्वरूप हत हो गया है , अव्यवस्थित हो गया है । कृपा का सद्गुण विकृत होकर कार्यण्य-दोष बन गया है । मैं कुछ भी निश्चय नहीं कर पा रहा हूँ। " वस्तुत: वीर अर्जुन को ठीक युद्ध के अवसर पर कायर बनाने वाली और क्षत्रीय को भिक्षा मांग कर जीवित रहने तक की भावना देने वाली शक्ति न तो कौरवों की सामरिक तैयारी थी और न ही व्यूह - रचना। जिसने अर्जुन को कायर बना दिया था, वह उसकी आत्म-विस्मृति थी ।

अर्जुन ने युद्ध-क्षेत्र में सम्पूर्ण कुल को देखा उसको रिश्ते - सम्बन्धों की सुध हो पायी , रिश्ते और नाते जो वस्तुत: क्षणिक हैं । उसने क्षणिक सम्बन्धों को शाश्वत और परम सत्य समझ लिया । अनित्य एवं क्षणिक व्यक्तित्व को यथार्थ मान लेने से अर्जुन आत्म-विस्मृति के अज्ञान से घिर गया । अर्जुन इस बात को भूल गया कि इन सम्बन्धों के दायरे से परे भी व्यक्तित्व का एक ऐसा अंश है जो पूर्ण स्वतंत्र और एकान्तिक है । गीता के उपदेश का मुख्य उद्देश्य यही है कि अर्जुन को यह ज्ञान कराया जाए कि वस्तुत: वह क्या है ? और जो युद्ध के लिए उपस्थित हैं उनसे उसका क्या सम्बन्ध है ?

सखा-सारथि- गुरु-कृष्ण अपना उद्देश्य सांख्य योग से प्रारम्भ करते हैं । वे अर्जुन को आत्मा और प्रकृति का उपदेश करते हैं और दोनों के स्वभाव एवं पारस्परिक सम्बन्ध को बताते हैं । प्रकृति की परिणामशीलता , शरीर की नश्वरता तथा आत्मा की अमरता का बोध गीता का दूसरा अध्याय कराता है। अर्जुन शरीर बनकर सोच रहा था , उसने अपने भौतिक रूप को ही सत्य समझ लिया था। जब कि वह शरीर बाद में था , पहले आत्म-तत्त्व था। ऐसा आत्म-तत्त्व जो कि अपनी सत्ता में अजर , अमर एवं अविनाशी है। इसलिए न किसी का पुत्र है और न किसी का पिता। अर्जुन ने इस तथ्य को भी भुला दिया था । नाते-रिश्तों से पहले वह क्षत्रिय है । उसका क्षत्रित्व जन्म से नहीं प्रकृति से है, जो गुण , कर्म और स्वभाव की रचना करती है । नाते रिश्ते बाहरी हैं , बनाये हुवे हैं , उनकी पकड़ इतनी गहरी नहीं कि वे प्रकृति के गुणों को बदल सकें । अत: कृष्ण कहते हैं कि उसे युद्ध के विषय में रिश्ते-नातों से परे क्षत्रियत्व के धरातल पर सोचना चाहिए । क्षत्रीय का धर्म युद्ध करना है और युद्ध का धर्म है कि वह दैवी सम्पदा का संवर्धन करे । अस्तु अर्जुन को गीता प्रत्येक दृष्टि से ध्यान करती है कि उसका मोह और अज्ञान आत्म-विस्मृति के कारण है। गीता के अंतिम अध्याय में अर्जुन कहता है कि इस उपदेश से उसका मोह नष्ट हो गया है और उसे स्मृति उपलब्द्ध हो गयी है । अब वह श्रीकृष्ण की आज्ञा के अनुसार ही कार्य एवं आचरण करेगा।

" नष्टो मोह: स्म्रृतिर्लब्ध:" इससे तात्पर्य यह है कि गीता के उपदेश से अर्जुन को बोध हो गया कि वह पहले पुरुष तत्त्व है फिर क्षत्रिय है। उसका भौतिक रूप जो सम्बन्धों और रिश्तों के दायरे में कैद है , वह गौण और नश्वर है । आत्म-स्मृति होते ही अर्जुन का विषाद - दौर्बल्य दूर हो गया और वह पुन: अपने वीर -रूप में आ गया।


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