बुधवार, 18 सितंबर 2013

त्याग-भाव से संसार को भोगो

त्याग-भाव से संसार को भोगो 
आत्म-भाव में स्थित रहना ही परम पुरुषार्थ 



भारतीय जीवन-दर्शन का मूल सूत्र यह है कि उत्तेजना चैतन्य को बहाकर बिखरा न दे चैतन्य निसर्ग के वृत्त एवं वर्तुल से निकल कर भटक न जाए। क्योंकि बाहर जो कुछ भी है , सब विकृति है , नश्वर है एवं बदलने वाला है जीवन को अगर इसके साथ मिला दिया जाए तो इसके गुण जीवन के नैरन्तर्य को भंग कर देंगे। अनित्य वस्तु का संसर्ग अनित्यता ही प्रदान करता है। नित्य आत्म-सत्ता में अनित्यता का दर्शन अज्ञान है। शरीरी आत्मा जब अपने को शरीर समझ बैठता है, तब अध्यास ग्रसित हो जाता है। यह विपर्यय अर्थात अविद्या है। cसमझना। इब जीवन का दिशा-निर्देश ही अशुद्ध हो तब जीवन का नकशा सही कैसे हो सकता है ? अविद्या मृत्यु है। अज्ञानी को चारों ओर फैला हुवा यह नाम रूपात्मक विस्तार आसक्ति में फंसा कर नष्ट कर देता है।



नचिकेता को आचार्य यम ने कहा _ जो बाह्य विषयों की चमक-दमक और आपात रमणीयता को देखकर उनमें आसक्त हुवे रहते हैं और उनके पाने एवं भोगने में ही दुर्लभ अमूल्य जीवन को खो देते हैं : वे वस्तुत: मूर्ख हैं। निश्चय ही सर्व-काल-व्यापी मृत्यु के पाश में बंध जाते हैं। परन्तु जो बुद्धिमान हैं वे इस विषय पर गहराई से विचार करते हैं। ये इन्द्रियों के भोग तो जीव को अन्य योनियों में भी पर्याप्त मिल सकते हैं , परन्तु मनुष्य-शरीर विलक्षण है। इसका वास्तविक उद्देश्य विषय-उपभोग कभी भी नहीं हो सकता। इस विचार से स्पष्ट हो जाता है कि जीवन की बहिर्मुखता केवल मृत्यु है। अस्तु अनित्य के संसर्ग से हटकर नित्य आत्म-भाव में स्थित रहना ही परम पुरुषार्थ है।

अत: आर्ष मनीषियों ने यह निश्चित किया कि जीवन बाह्य आसक्ति में फंसा नहीं होना चाहिए। इसका अर्थ यह नहीं है कि मनुष्य बाह्य संसार से सम्बन्ध तोड़ ले। न तो ऐसा किया जा सकता है और न यह सम्भव भी नहीं है। यदि वस्तुपरक अनुभूति इच्छित न होती तो प्रकृति कभी भी मानव-शरीर की ऐसी संरचना नहीं करती जैसी उसने की है। हमारा शरीर इस प्रकार की क्षमताओं से युक्त है , जिनसे नाम रूपात्मक जगत को भोग जाता है। भोग से भागने की बात आर्य-दर्शन का सत्य नहीं है। आर्यदर्शन पलायनवादी नही है। और न ही निराशावादी है। यह जगत के अस्तित्व को अस्वीकारता नहीं है। किन्तु भोग के प्रति अनासक्ति इसकी विशेषता है। अनासक्त होकर त्याग-भाव से संसार को भोगो _ " तेन त्यक्तेन भुंजीथा: "।%%%%%%%%%%%%

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