सोमवार, 23 सितंबर 2013

आटोसजेशन एक प्रक्रिया है

टोसजेशन एक प्रक्रिया है , जो मन, बुद्धि और शरीर को स्थिर करता है।


प्रतिभा-संवर्द्धन के विविध सोपान हैं।टोसजेशन एक प्रक्रिया है , जो मन, बुद्धि और शरीर को स्थिर करता है। एक प्रकार से आटोसजेशन द्वारा अपने आभा-मंडल को एक सशक्त चुम्बक में परिणत किया जा सकता है। जो जैसा विचार करता है , वह वैसा ही बन जाता है। पोजिटिव धारणा से जीवन की सोच बदली जा सकती है। नीयत सही होने पर नियत भी सही हो जाती है। दर्पण-साधना मूलत: आत्मावलोकन एवं आत्म-परिष्कार की साधना है। बड़े आकार के दर्पण के सामने बैठा जाए तथा शरीर के प्रत्येक भाग पर विश्वास भरी दृष्टि से देखा जाए। पहले अपने बारे में चिंतन करें ,अंतत: दोष-दुर्गुणों से मुक्त होते रहने की भवना की जाए। यह ध्यान -प्रक्रिया लय -योग की साधना कहलाती है। रंगीन वातावरण का ध्यान में रंगीन पारदर्शी कांच के माध्यम से अथवा विभिन्न रंगों के बल्बों द्वारा पीड़ित अंग पर अथवा अंग-विशेष पर उसकी सक्रियता बढ़ाने के लिए रंगीन किरणों को आवश्यकतानुसार निधारित अवधि तक लेने का विधान है। प्रतिभा-परिवर्धन हेतु उचित रंग विशेष का आँख बंद कर ध्यान भी किया जाता है। बिना किसी यंत्र के केवल ध्यान द्वारा ही यह क्रिया की जा सकती है। सफेद रंग में सभी रंग समाये हुवे हैं , अत: सफेद रंग का ध्यान सभी के लिए उपयोगी है।

प्रतिभा-संवर्द्धन के लिए एक विधान प्राणाकर्षण प्राणायाम का है। नासिका के दोनों छिद्रों से धीरे-धीरे साँस खींचते हुवे भावना की जाए कि साँस के साथ प्रखर प्राण की मात्र भी घुली हुयी है और वह शरीर में प्रवेश कर रही है। श्वास पर ध्यान लगाया जाता है तो वह तुरंत ही प्राण बन जाता है। इस प्राणायाम में श्वास लेते समय " यद्भद्रं तन्न आसुव " तथा श्वास छोड़ते समय " दुरितानि परासुव " का भाव रखना चाहिए। सूर्य-वेधन प्राणायाम में ध्यान किया जाए कि आत्म-सत्ता शरीर में से निकलकर सीधे सूर्य-लोक पहुंच रही है। दायीं नासिका से खींचा श्वास अंदर तक जाकर सूर्य-चक्र को आंदोलित एवं उत्तेजित कर रहा है। ओज, तेज और वर्चस्व की बड़ी मात्राअपने में धारण करके वापिस बायीं नासिका से सारे विकार व कल्मष निकल रहे हैं। इसमें क्रिया को गौण व भावना को प्रधान मानते हुवे यह अभ्यास नियमित करना चाहिए।


चुम्बक-स्पर्श का चिकित्सा में विशेष योगदान माना गया है। हमारी धरती एक विराट चुम्बक है और प्राण उत्तरी ध्रुव की ओर आकर्षित होते हैं। चुम्बक-स्पर्श में यही सिद्धांत प्रयुक्त होता है। चुबक का सहज क्षमता वाला पिंड लेकर धीरे-धीरे मस्तिष्क, रीढ़ ओर हृदय पर बाएं से दायीं ओर गोलाई में घुमाया जाता है। गति धीमी रहे। कंठ से लेकर नाभि-छिद्र के ऊपर होते हुवे जननेन्द्रियों तक उस चुम्बक को पहुंचाया जाए। स्पर्श कराने व घुमाने के उपरांत उसे धो दिया जाए ताकि उसके साथ कोई प्रभाव न जुड़ा रहे। महाप्राण का सान्निध्य अर्थात पूज्य-पुरुषों का सामीप्य प्रतिभा-संवर्द्धन में कारक है। चरण-स्पर्श से लाभ उठाने का प्रयास करना चाहिए। साबुन जिसप्रकार अपनी सफेदी प्रदान करता है ओर कपड़े से मैल हटा देता है, उसी प्रकार की भावना इस सघन-सम्पर्क की ध्यान-धारणा में की जाती है।


नाद-योग भी प्रतिभा-सम्वर्द्धन में अत्यधिक सहायक होता है। वाद्य-यंत्रों और उनकी ध्वनियों के अपने-अपने प्रभाव हैं। उन्हें कोलाहल रहित स्थान पर सुनने में प्रतिभा-संवर्द्धन होता है। टेपरिकार्डर से संगीत सुनकर भी यह कार्य सम्भव है। दुष्कर्मों से प्राण-शक्ति क्षीण होती है और प्रतिभा का अनुपात घट जाता है। इसके लिए प्रायश्चित किया जाए। क्रिश्चियन धर्म में ' कन्फेशन ' की बड़ी महत्ता बताई गयी है। प्रायश्चित धुलाई की मनोवैज्ञानिक आवश्यकत्ता पूरी करता है। प्रतिभा सम्वर्द्धन के लिए अन्तरंग की धुलाई अनिवार्य भी है। 


वनौषधि एवं अंकुरित तत्त्व प्रतिभा-संवर्द्धन में अत्यधिक सहायक हैं। इनके रस को पानी एवं मधु के साथ लिया जा सकता है। यह टानिक का कार्य करता है। इससे तेज, मेधा वर्चस्व की वृद्धि होती है। इसी प्रकार हरी जड़ी-बूटियों या उन औषधियों के सूखे चूर्णों का भी कल्क बना कर ग्रहण किया जा सकता है। निर्धारण विशेषज्ञ करते हैं। विशेष स्थितियों

में वाष्पिभूत रूप में अग्निहोत्र प्रक्रिया से नासिका मार्ग द्वारा ग्रहण कए जाने का भी प्रावधान है। ब्राह्मी, शंखपुष्पी, जटामांसी, अश्वगंधा, बच, तुलसी, ज्योतिष्मती, अमृता अर्थात गिलोय आदि का सेवन प्रतिभा -सवर्द्धन में अत्यंत उपयोगी है। अत: इन विविध प्रयोगों के माध्यम से प्रतिभा-संवर्द्धन किया जा सकता है। &&&&&&&&&&&&&&&&&&&


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