गुरुवार, 19 सितंबर 2013

अजातशत्रु आत्म-विस्मृति का शिकार

अपने को न जानना आत्म-विस्मृति 



अपने को न जानना आत्म-विस्मृति है। अजातशत्रु आत्म-विस्मृति का शिकार हो गया था। उसे युवराज रूप का तो स्मरण था , किन्तु आने पुत्र-रूप को भूल गया था। आत्म-विस्मृति का अर्थ है अपने स्वरूप को भूल जाना अर्थात मूल से कट जाना जब व्यक्ति स्वरूप को , अर्थात अपनी यथार्थता को भूल जाता है तब सारा व्यवहार स्वार्थ-केन्द्रित होता है। स्वार्थ परायणता स्वभाव में क्रूरता और अन्याय पैदा करती है। अपने से कटकर आरोपित व्यक्त्तित्व को आधार बनाने में पारस्परिक सम्बन्ध ऐसे ही हो जाते हैं।

पाटलिपुत्र के युवराज अजातशत्रु ने विद्रोह कर दिया अजातशत्रु राज्य चाहते थे। वृद्ध सम्राट बिम्बसार ने मंत्री-मंडल की बैठक बुलाई। सम्राट पुत्र के व्यवहार से क्षुब्द्ध थे। अनुभवी आमात्य ने कहा _ ' युवराज में सत्ता की भूख जाग गयी है। सम्राट उसे शासन करने के लिए कोई प्रान्त दे दें। ' अजातशत्रु को एक राज्य का राज्यपाल बना दिया गया। युवराज के सलाहकारों ने राय दी _ ' सम्राट शक्ति की भाषा समझते हैं। आपने विद्रोह की धमकी दी तो प्रान्त का शासन मिल गया , क्यों न सैन्य-संगठन करके आपको सम्राट पद पर प्रतिष्ठित किया जाए। यौवन- काल सत्ता की प्रतीक्षा में कट गया तो वृद्धावस्था में मिला राज्य-सुख किस काम का रहेगा ? ' युवराज अजातशत्रु ने धीरे-धीरे शक्ति-संचय किया और एक दिन अवसर पाकर पाटलिपुत्र पर आक्रमण करने के लिए निकल पड़ा

सम्राट ने पुन: स्थिति को सुलझाने के लिए मंत्री-परिषद का आह्वान किया। बूढ़े मंत्री ने सम्राट को राय दी कि राजधानी छोडकर शेष राज्य युवराज को दे दिया जाए। सम्राट ने ऐसा ही किया। अजातशत्रु के सलाहकारों ने अप्निविज्य पर प्रसन्नता मनायी। किन्तु सम्राट द्वारा राजधानी रख लेने पर दुःख प्रकट किया _ ' ओह , राजधानी रहित राज्य कैसा ? यह वैसा ही है जैसा कि आत्मा निकला हुवा शरीर। अब बूढ़े सम्राट के पास रह क्या गया है ? क्यों न एक झटके में राजधानी पर अधिकार कर लिया जाये।

राजधानी न मिलने से अजातशत्रु स्वयं हीनता अनुभव कर रहा था। अत: उसने तत्काल राजधानी पर अधिकार करने का आदेश दिया। वृद्ध सम्राट ने पुन: मंत्रिपरिषद बुलाई। बूढ़े मंत्री ने राय दी कि युवराज को सबकुछ दे दिया जाए। सम्राट किसी चमत्कार की आशा में थे। अमात्य के फैसले से चकित रह गये। अमात्य ने कहा _ ' अन्ततोगत्वा राज्य युवराज को देना ही है , तो क्यों न अभी दे दिया जाए। ' अजातशत्रु की सेना ने बिना एक बूंद भी रक्त बहाए राजधानी अधिकार में कर ली। अजातशत्रु युवराज से सम्राट बन गया भविष्य की आशंकाओं को दूर करने के लिए उसने बूढ़े सम्राट को कारागृह में दल दिया।

सम्राट का शीघ्र मर जाना सुरक्षा की दृष्टि से आवश्यक समझ अजातशत्रु अपने पिता को विभिन्न प्रकार की यातनाएं देने लगा एक दिन अजातशत्रु के पुत्र की अंगुली में अकस्मात पीड़ा उठ आई। बालक पीड़ा से तड़प रहा था। उसकी अंगुली विषैला फोड़ा निकल आया था। वैद्यराज ने कहा _ " जब तक सारा विष बाहर नहीं लिकलेगा राजकुमार की पीड़ा शांत नहीं होगी। " अजातशत्रु का वात्सल्य जल-स्रोत की तरह फूट पड़ा। अपने प्राणों की परवाह न करके उसने पुत्र की अंगुली का विष चूस कर निकाल डाला राजमाता जो उस दृश्य को देख रही थीं , जोर से हंस पड़ी। अजातशत्रु ने पूछा _ " माँ तुम क्यों हंसी ? " बूढ़ी माता ने कहा _ " बेटा एक बार तेरी पीठ में ऐसा ही विषैला फोड़ा निकला था। तेरे पिता ने भी अपने प्राणों की परवाह न करके उसके विष को चूस लिया था। " माता के एक वाक्य ने अजातशत्रु के मर्म को भेद दिया।

आज तक युवराज बनकर वह सबकुछ सोचता और करता चला आया था। माता के इस वाक्य ने अजातशत्रु को एहसास कराया कि वह युवराज ही नहीं एक पुत्र भी है और बिम्बसार राजा ही नहीं अपितु उसके पिता भी हैं वह कारागृह की ओर भागता हुवा चला। पश्चाताप के आंसू बह रहे थे और वह पितृ-चरणों में गिरकर अपराध की क्षमा चाहता था। कारागृह के द्वार पर उसकी पग-ध्वनि बूढ़े सम्राट ने सुनी। यातनाओं से दुखी बिम्बसार घबरा गया। बूढ़े शरीर में और नई यातना सहने की शक्ति नहीं थी। अस्तु सम्राट ने शरीर छोड़ दिया। कारागृह के द्वार तोड़े गये। पिता के मृत शरीर को देखकर अजातशत्रु दुःख से पागल हो गया।

अजातशत्रु आत्म-विस्मृति का शिकार हो गया था। उसे युवराज रूप का स्मरण तो था , किन्तु वह अपने पुत्र रूप को भूल गया था। ऐसे ही जब कोई समाज अपने यथार्थ रूप को भूल जाता है और संस्कृति के मूल से कट जाता है तब स्थिति भयानक हो जाती है। समाज के लोग विभिन्न वर्गों में बंटकर एक-दूसरे का शोषण करने लगते हैं और अन्याय का बोलबाला हो जाता है। पारस्परिक सहयोग और विश्वास नष्ट हो जाते हैं । व्यक्तिगत जीवन की सारी गंदगी तैरकर समाज की अपनी सतह पर आ जाती है । सद्गुण विकृत हो जाते हैं । व्यक्ति खोखला हो जाता है । वीर कायर और विद्वान् राक्षस बन जाते हैं। आत्म- विस्मृति की बुद्धि तर्क का दुरूपयोग करती है और जीवन को उलझा कर हर प्रकार की समस्या खड़ी कर देती है।************

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