रविवार, 15 सितंबर 2013

आत्म - तत्व तो कुंडली के समान अपने ह्रदय में

आत्म - तत्व तो कुंडली के समान अपने ह्रदय में विद्यमान 


अपने को पहचानना ही आत्म - तत्त्व है . वेद में ' आत्मानं विद्धि ' के माध्यम से अपनी स्थिति को स्वीकार करने को कहा गया है . स्वयं की शक्तियों को जानना और उनको आत्म - कल्याण एवं सर्व- कल्याण में लगाना ही आत्म -तत्त्व की सही स्वीकृति है . आत्म -तत्त्व सहज स्वीकृति एवं नित्य व शाश्वत है . यह एक ऐसी सुगंध है , जो सुयश को प्रदान करती है . यह परिवेश को खुशनुमा बना देती है . गीता में आत्मा को अजर , अमर एवं शाश्वत बताया गया है . इस आत्म-तत्व के माध्यम से ही शरीर मन , प्राण और आत्मा को पहचाना जा सकता है .
वास्तव में हमारे शरीर और ज्ञानेन्द्रियों का सम्बन्ध मन से होता है और मन का सम्बन्ध बुद्धि से तथा बुद्धि का आत्मा से होता है . इसके बाद आत्मा का सम्बन्ध परमात्मा से होता है . आत्म - तत्त्व के विकास से हम मन और बुद्धि में संतुलन बनाकर अपने सामर्थ्य को बढ़ा सकते हैं . आत्म -तत्त्व ही हमें मन के माध्यम से हित - अहित का ज्ञान कराकर सद मार्ग की ओर प्रेरित करता है . तभी तो ' असतो मा गमय ' , ' तमसो मा ज्योतिर्गमय ' , ' मृत्युर्मा अमृतं गमय ' आदि की प्रार्थना की गयी है . यह भाव लोक - हित एवं जन - कल्याण की ओर प्रेरित करता है . इससे परमात्मा का मार्ग प्रशस्त होता है .

सत्य यह है कि आत्म -तत्त्व को खोजा नहीं जाता है , अपितु वह अंतर में प्राप्त होता है . कबीर ने भी स्पष्ट किया है कि आत्म - तत्व तो कुंडली के समान अपने ह्रदय में विद्यमान रहता है और उसे संसार में इधर -उधर खोजने की भी आवश्यकता नहीं है . ********


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