रविवार, 15 सितंबर 2013

क्रोध का अंत पश्चाताप में

क्रोध का अंत पश्चाताप में होता है और उसका समाधान प्रायश्चित में 

क्रोध एक मानसिक विकृति है एवं यह एक मनोवेग है । क्रोध अपेक्षा से जन्म लेता है और वह उपेक्षा के कारण विकसित होता है । अपेक्षा चाह है और उसकी पूर्ति न होना ही उपेक्षा हो जाती है । एक रूप से जब अहंकार पर चोट पडती है , तब क्रोध उत्पन्न हो जाता है । क्रोध के कारण रक्त -प्रवाह बढ़ जाता है और अनेक रासायनिक परिवर्तन होने लगते हैं । क्रोध में चेहरा लाल हो जाता है और हृदय की धड़कन बढ़ जाती है । व्यक्ति की मुस्कराहट में क्रोध जन्म नहीं ले पाता । क्रोध का अंत पश्चाताप में होता है और उसका समाधान प्रायश्चित में होता है ।

क्रोध की अवस्था में शांत रहने का प्रयास रहना चाहिए और उस क्रोध का रूपांतरण या दिशा-परिवर्तन का प्रयास करना चाहिए । स्थान से हटने के साथ-साथ पर्याप्त जल का भी सेवन करना चाहिए । क्रोध विनाश का कारण है तथा उससे बचने का निरंतर प्रयत्न करना चाहिए ।

 पारिवारिक जीवन में भी अशांति का प्रमुख कारण क्रोध ही है। क्रोध व्यक्ति का सबसे बड़ा शत्रु है । क्रोध व्यक्ति को अंदर से खोखला कर देता है । व्यक्ति को आग के समान ही जला कर भस्म कर देता है । क्रोध के कारण ही चिंता का जन्म होता है । चिता तो मरे हुवे को जलाती है , जबकि चिंता तो जीवित व्यक्ति को ही भस्म कर डालती है । अत: तनाव और विषाद से मुक्त रहकर क्रोध रहित रहने का प्रयास करना चाहिए । क्रोध का मन का ही भाव है और मन के स्वभाव को थोडा-सा परिवर्तित कर मनोवेग से बचा जा सकता है । नजर बदलते ही नजारा भी बदलता है । दृष्टिकोण में परिवर्तन करके दृष्टि को रूपांतरित किया जा सकता है । कामना की पूर्ति न होने पर क्रोध का जन्म होता है और क्रोध ही बुद्धि का विनाश कर देता . *******************

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