कुंवा खोदने वाला उत्तरोत्तर नीचे जायेगा और दीवार चिनने वाला क्रमश: ऊंचा उठता चला जायेगा'
' तमसो मा ज्योतिर्गमय ' यह बहुत बड़ी उक्ति है । इसे जीवन के स्रोत वाक्य के रूप में प्रस्तुत किया जाता है । प्रकाश की ओर बढ़ने की चाह ही जीवन का सही उद्देश्य हो सकती है । अंधकार की ओर देखना ही अविद्या की ओर बढ़ना है । स्पष्ट है कि धर्म-मार्ग में चलने वाला मनुष्य अपने द्वेष आदि दुर्गुणों को इस प्रकार नष्ट करता है , जैसे सूर्य अंधकार का विनाश कर डालता है । साथ ही जैसे सूर्य अपने प्रकाश से जगमगा रहा है , उसी प्रकार धर्मात्मा की प्रशंसा चारों ओर फैल जाती है । मनुष्य को पतन की ओर ले जाने वाली राजसी और तामसी वृत्तियाँ को अंधकार या अविद्या कहा जा सकता है । जैसे अंधकर में आँख वस्तु के वास्तविक रूप को नहीं ग्रहण नहीं कर पाती , उसी प्रकार जो वृत्तियाँ कर्त्तव्य -बोध में बाधक बनकर कर्त्तव्य से विमुख कर दें , वे अंधकार के समान ही हैं । इस अवस्था में मनुष्य को धर्म का प्रकाश ही सूर्य के समान मार्गदर्शक बनता है ।
' तमसो मा ज्योतिर्गमय ' यह बहुत बड़ी उक्ति है । इसे जीवन के स्रोत वाक्य के रूप में प्रस्तुत किया जाता है । प्रकाश की ओर बढ़ने की चाह ही जीवन का सही उद्देश्य हो सकती है । अंधकार की ओर देखना ही अविद्या की ओर बढ़ना है । स्पष्ट है कि धर्म-मार्ग में चलने वाला मनुष्य अपने द्वेष आदि दुर्गुणों को इस प्रकार नष्ट करता है , जैसे सूर्य अंधकार का विनाश कर डालता है । साथ ही जैसे सूर्य अपने प्रकाश से जगमगा रहा है , उसी प्रकार धर्मात्मा की प्रशंसा चारों ओर फैल जाती है । मनुष्य को पतन की ओर ले जाने वाली राजसी और तामसी वृत्तियाँ को अंधकार या अविद्या कहा जा सकता है । जैसे अंधकर में आँख वस्तु के वास्तविक रूप को नहीं ग्रहण नहीं कर पाती , उसी प्रकार जो वृत्तियाँ कर्त्तव्य -बोध में बाधक बनकर कर्त्तव्य से विमुख कर दें , वे अंधकार के समान ही हैं । इस अवस्था में मनुष्य को धर्म का प्रकाश ही सूर्य के समान मार्गदर्शक बनता है ।
जब मनुष्य का पतन होने लगता है तो कैसे एक के बाद दूसरी बुराई आती चली जाती है । वही मनुष्य ऊंचा उठने का व्रत लेले तो एक-एक बुराई दूर होती चली जाती है और उसका स्थान सद्गुण ग्रहण करते चले जाते हैं । किसी नीतिकार ने कहा भी है _ ' मनुष्य अपने ही कर्मों से नीचे गिरता चला जाता है । और पवित्र कर्मों से ऊंचा उठता चला जाता है । जैसे कुंवा खोदने वाला उत्तरोत्तर नीचे जायेगा और दीवार चिनने वाला क्रमश: ऊंचा उठता चला जायेगा । '
अँधेरा यदि प्रकाश की अनुपस्थिति है , तो छाया अँधेरे और प्रकाश के बीच की एक ऐसी स्थिति है जो होकर भी नहीं है और न होकर भी है । अंधकार का अर्थ है एक काला आकार जो अँधेरे का घनघोर समुद्र है । आँख बंद करते ही सब अँधेरा ही अँधेरा है उसका कोई रूप -रंग नहीं होता । लेकिन छाया ऐसी नहीं है । छाया का अर्थ_ प्रकाश तो है , किन्तु उसके मार्ग में कोई बाधा आ गयी है । उस बाधा की पृष्ठ -भूमि में प्रकाश उपस्थित रहता है । उसकी किरणें उस वस्तु को न भेद कर उसके इधर-उधर बिखर गयी हैं । और उस वस्तु का बिम्ब ही छाया है । इस छाया का पहचानना बहुत ही कठिन है । यह तो बताया जा सकता है की यह पेड़ की छाया है या किसी वस्तु की छाया है । पर यह बताना बड़ा कठिन है कि यह किस विशेष वृक्ष या वस्तु की वास्तविक छाया है । जब तक कि उस वस्तु को पहले न देखा हो । छाया विश्राम-स्थल तो हो सकती है , लेकिन वहां स्पष्टता नहीं हो सकती ; क्योंकि वहां प्रकाश नहीं । जहाँ प्रकाश नहीं , वहां स्पष्टता भी नहीं होगी ।
ज्ञान ही समझ को उत्पन्न करता है । अन्यथा अत्यधिक उलझनें और समस्याएं उपस्थित हो जाती हैं । बिना ज्ञान के चलना अंध -मार्ग पर चलना है ।इसीलिए ज्ञान -प्राप्ति को ब्रह्म और मोक्ष का मार्ग व द्वार बताया गया है । प्रकाश के बिना कुछ भी सम्भव नहीं है । प्रकाश का अवरोध ही छाया का निर्माण करता है । लेकिन व्यक्ति की पृष्ठ-भूमि में प्रकाश की उपस्थिति छाया का निर्माण नहीं करती अपितु वह परछाई बनाती है । परछाई में छाया तो है , लेकिन वह 'पर ' अर्थात दूसरे की है । पर यह आश्चर्य की बात है कि छाया तो उसकी है परन्तु उसे परछाई कहा जाता है । भला स्वयं उसकी छाया को दूसरे की छाया कैसे कहा जा सकता है ?
हम जो कुछ भी कर रहे हैं , कह रहे हैं , वह सब दूसरों का ही तो है , सिवाय इस शरीर के । तो बात स्पष्ट है कि इस शरीर से जो कुछ भी हो रहा है , वह अपनी छाया न होके परछाई ही तो है । साथ ही यहाँ जिस ' प्रकाश ' की बात कही गयी है , वह प्रकाश स्व-बोध का प्रकाश है , यह स्व को जानने का है पर स्व को पा लेने का है । और जब व्यक्ति अपनी निजता को पा लेता है , तो उसका समूल परिवर्तन हो जाता है । क्योंकि वह दुनिया के सामने मौलिक व्यक्तित्व के रूप में सामने आता है । इसलिए वह विद्रोही मान लिया जाता है । दूसरों का अन्धानुकरण न कर व्यक्ति को अपने स्वतंत्र और मौलिक अस्तित्व का निर्माण करना चाहिए ।
इसी प्रकार के व्यक्तित्व दूसरों के लिए छाया बनते हैं । छाया कल्याणकारी होती है , पर परछाई किसी भी रूप में कल्याणकारी नहीं होती । प्रकाश बनने का प्रयास करना चाहिए , यदि प्रकाश न बन सकें तो छाया भी बन सकते हैं । लेकिन परछाई नहीं बनना चाहिए , उसमें न तो सुख है और न ही आनन्द । प्रकाश के समस्त अवरोधों को गिराकर हमें प्रकाशमय बन जाना चाहिए : तभी हम प्रकाश-पुंज होकर ज्योतिर्मय हो सकते है ।*******
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