रविवार, 15 सितंबर 2013

' टीन एज ' संक्रमण की मध्य अवस्था

 ' टीन एज ' संक्रमण की मध्य अवस्था 




मानव-जीवन को सामान्यतया चार आश्रमों में विभाजित किया गया है । इनको ब्रह्मचर्य , गृहस्थ , वानप्रस्थ और संन्यास के नाम से जाना जाता है । ब्रह्मचर्य आश्रम विद्याध्ययन का कार्य-काल होता है । इसमें बालक समुचित शिक्षा को ग्रहण करता है तथा जीवन का निर्माण करता है । जीवन की आधारशिला को निर्मित करता है । यह आश्रम धर्म का मूल आधार है । यह किशोरावस्था का काल होता है । इसमें भटकने के अत्यधिक आसार होते हैं। किशोरावस्था को ' टीन एज ' भी कहा गया है ; क्योंकि अंग्रेजी में गिनती के अंतर्गत थर्टीन से नाइनटीन में ' टीन ' शब्द का प्रयोग होता है । यह ' टीन एज ' संक्रमण की मध्य अवस्था होती है । इसमें बालक न ही पूर्ण रूप से बालक ही रह पाता है और न हो वह पूर्ण रूप से युवक ही हो पाता है । न ही बालक के समान व्यवहार कर सकता है और न पूर्ण युवक के समान ही ।

ब्रह्मचर्य-काल जीवन-निर्माण का काल होता है । इस अवस्था में जो कुछ प्राप्त कर लिया जाता है , वही पूरे जीवन का आधारभूत होता है । विद्या अध्ययन ही इस समय का मूल रूप है । विद्यार्थी को कठोर परिश्रम करना चाहिए। कहा भी गया है कि _ ' विद्यार्थिनाम कुतो सुखं सुखार्थिनाम कुतो विद्या ' अर्थात विद्यार्थी के लिए सुख नहीं है और सुखार्थी के लिए विद्या नहीं है । बाल्यावस्था में बालक पर विशेष ध्यान देना चाहिए और उसका प्रेम एवं स्नेह पूर्वक पालन करना चाहिए । ' टीनएज ' अर्थात किशोरावस्था में उस पर नियंत्रण रखना चाहिए । क्योंकि यही उम्र बनने और बिगड़ने की होती है । ढ़ील देने पर बालक पतन की ओर ही बढ़ जाता है । इसलिए उसके उत्थान के लिए नियंत्रण की अत्यधिक आवश्यकता है । एक रूप से इस काल या आश्रम को धर्म या आचरण का काल कह सकते हैं ।

दूसरा गृहस्थ आश्रम है , जो विशेष विशेष कर्म और अर्थ का संयोग है । कर्म का व्यापक रूप काम में समाहित हो जाता है । काम ही काम्य है यही समस्त कामनाओं का जनक है । कामना का भाव कर्म पर ही आधारित होता है। यह आश्रम पूर्णत: अर्थ पर ही आधारित है । इसमें अनर्थ का कोई महत्त्व नहीं है । अर्थ अर्थात धन से ही समस्त कार्य एवं मनोरथ पूर्ण होते हैं । धन ही समस्त मनोरथ के साथ-साथ सब प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान एवं पुण्य एवं दान में सहायक होता है । गृहस्थ ही समस्त आश्रमों का पालन-पोषण करता है । गृहस्थ द्वारा ही ब्रह्मचारी , वानप्रस्थी एवं संन्यासी का पालन-पोषण होता है । इसीलिए गृहस्थ को सभी आश्रमों में श्रेष्ठ आश्रम कहा गया है । और इसे ही ज्येष्ठ आश्रम की संज्ञा से प्रतिष्ठित किया गया है ।



गृहस्थ आश्रम में व्यक्ति अपने उत्तरदायित्वों को पूर्ण करने के लिए प्रतिबद्ध होता है । वह विवाह करके एक नई सृष्टि का जहाँ निर्माण करता है तथा वहां वह पूर्ण निष्ठा के साथ उनका पालन-पोषण भी करता है । अपने कर्त्तव्य के प्रति वह अधिक सजग होता है और वह अपने कर्त्तव्य को पूर्ण करने का भरसक प्रयास भी करता है । विवाह का अर्थ विशेष रूप से वहन करना ही होता है ।


तृतीय आश्रम वानप्रस्थ है । इसमें व्यक्ति अपने गृहस्थ - धर्म को निभाने के बाद जीवन को एक नई दिशा की ओर अभिमुख कर देता है । वह अपनी पारिवारिक जिम्मेदारी से मुक्त हो जाता है और वह सामाजिकता की ओर अग्रसर हो जाता है । व्यक्ति का क्षेत्र इस आश्रम में आकर अत्यधिक विस्तृत हो जाता है । वह परिवार के स्थान पर समाज की बढ़ जाता है । इसमें व्यष्टि के भाव के स्थान पर समष्टि का भाव अंकुरित हो उठता है । कामासक्ति का विस्तार होकर जन-कल्याण में हो जाता है । लोक-कल्याण का भाव अहम हो जाता है । एक रूप से वह घर में रहते हुवे भी घर से अनासक्त होने लगता है । उसका जीवन घर में अनासक्त भाव से एकांत वन के समान विराग , विमोह एवं विद्वेष भाव से आपूरित हो उठता है । उसमें कर्त्ता - भाव का अहं तिरोहित होने लगता है और उसमें द्रष्टा-भाव जन्म लेने लगता है । यह द्रष्टा -भाव ही उसे संतुष्टि प्रदान करता ही है । तथा जीवन का एक न्य द्वार खोलता है ।

जीवन का चतुर्थ एवं अंतिम आश्रम संन्यास है । इस आश्रम में व्यक्ति स्वयं को उस प्रभु के सम अपने को प्रतिष्ठित करने का प्रयास करने लगता है । वह इसमें नये जन्म और जीवन की तैयारी में संलग्न होने लगता है । इस में सभी प्रकार की सांसारिक कामनाओं से इतिश्री कर प्रभु -ध्यान में ही मन लगाना चाहिए । जीवन का यह उत्कर्ष काल है । इसमें अभिन्न रूप में अपने आराध्य का ही चिन्तन , मनन और ध्यान करना चाहिए , ताकि परम शांति प्राप्त हो सके और सच्चिदानन्द की भी प्राप्ति हो सके । यही जीवन की सतत गति शील प्रक्रिया है ।******************


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