मगर जब उठ रहीं चिंगारियां , भिन्न -भिन्न स्वार्थों के कुलिश संघर्ष की , युद्ध तब तक विश्व में अनिवार्य है
भारत की स्वाधीनता से पूर्व हम अपने स्वराज्य के बड़े रंगीन सपने संजोया करते थे । सोचते थे कि स्वाधीन भारत एक बार फिर सारे संसार का पथ प्रदर्शक बनेगा । भारत के ऋषियों के प्रति वह निष्ठा अब तक भी संसार के समस्त विचारकों की रही है । एक विदेशी प्रसिद्ध विद्वान् ने विश्व शांति सम्मेलन के अध्यक्ष पद से बोलते हुवे कहा था _ ' अरे ! भू-मंडल के समस्त विद्वानों ! यदि आप संसार के वायु -मंडल को क्षोभ-रहित और शांत रखना चाहते हो तो भारत के वनों और गुफाओं में तप करते हुवे महात्माओं की सेवा में जाओ और उनके चरणों में बैठकर उनके पवित्र मुख से जो विचार सुनो , उनका प्रचार एवं प्रसार योरोप और अमेरिका में करो । तब संसार में शांति हो सकती है ।
भारत की स्वाधीनता से पूर्व हम अपने स्वराज्य के बड़े रंगीन सपने संजोया करते थे । सोचते थे कि स्वाधीन भारत एक बार फिर सारे संसार का पथ प्रदर्शक बनेगा । भारत के ऋषियों के प्रति वह निष्ठा अब तक भी संसार के समस्त विचारकों की रही है । एक विदेशी प्रसिद्ध विद्वान् ने विश्व शांति सम्मेलन के अध्यक्ष पद से बोलते हुवे कहा था _ ' अरे ! भू-मंडल के समस्त विद्वानों ! यदि आप संसार के वायु -मंडल को क्षोभ-रहित और शांत रखना चाहते हो तो भारत के वनों और गुफाओं में तप करते हुवे महात्माओं की सेवा में जाओ और उनके चरणों में बैठकर उनके पवित्र मुख से जो विचार सुनो , उनका प्रचार एवं प्रसार योरोप और अमेरिका में करो । तब संसार में शांति हो सकती है ।
भारत की अपनी निजी विशेषता है । यहाँ पुरुषार्थी ही वीर है और वीर ही पुरुषार्थी है । सामान्यतया शूर और वीर पर्यायवाची समझे जाते हैं । किन्तु विशेषत: अर्थ को देखते हुवे दोनों में अंतर है । शूर शब्द हिन्सार्थक ' श्री ' धातु से बना है , अत: यह शब्द उस सैनिक का वाचक है , जो आदेश पर गोली चला देता है । सोचना -विचारना उसका काम नहीं । किन्तु वीर शब्द गत्यर्थक ' वीर ' धातु से बना है , अत: सेना का सम्पूर्ण नीति -निर्धारण पूर्वक युद्ध करना आदि वीर कि सीमा में आती हैं । श्रुति में ' वीर भोग्य वसुंधरा ' के विषय में कहा गया है । वीर वही है जो युद्ध भी न्याय-पूर्वक करे । वैदिक नारी या माता की घोषणा है कि _ ' मम पुत्र: शत्रु हणो: अथो मे दुहिता विराट ' अर्थात मेरे पुत्र इतने सशक्त हों कि वे एक सच्चे वीर के समान शत्रुओं का वध करने वाले हों तथा मेरी पुत्रियाँ भी मेरे समान ही दिव्य एवं विराट गुणों से युक्त सन्तान को उत्पन्न कर सके ।
वसूं अर्थात ऐश्वर्य को धारण करने वाली वसुंधरा ही वीरों की थाती है । वीरता ही पुरुषों का आभूषण माना गया है। सच्चा वीर जन-कल्याण के भाव को समक्ष रख कर ही कार्य करता है । वीर शब्द विशेषत: पंजाब में भाई के लिए ही प्रयुक्त होता है । इससे स्पष्ट होता है कि भाई को वीर होना ही चाहिए और हर वीर ही भाई है । वीर ही मुखिया होता है और मुखिया मुख के जैसा होना चाहिए । जो भी वह ग्रहण करे तो उसका वितरण करे , अपने मुख में रख कर ही नहीं बैठ जाना चाहिए । और वह तन के सभी अंगों का पालन-पोषण करे । दिनकर की ये पंक्तियाँ बिलकुल ही सटीक हैं ' युद्ध को तुम निन्द्य कहते हो , मगर जब उठ रहीं चिंगारियां , भिन्न -भिन्न स्वार्थों के कुलिश संघर्ष की , युद्ध तब तक विश्व में अनिवार्य है। '
साथ ही वीरता के साथ पुरुषार्थी भी होना आवश्यक है । जो पूरी शक्ति से परिश्रम नहीं करते , उन्हें लक्ष्मी नहीं मिलती । आलसी मनुष्य पापी होता है । भगवान परिश्रम करने वालों को मित्र बनाता है । इसलिए श्रम करना चाहिए । चलने वाले की जंघाएँ सशक्त होती हैं , जो सफलता मिलने तक काम में जुटे रहते हैं ; उनकी आत्मा प्रतिभा-सम्पन्न होती है । परिश्रमी मनुष्य की समस्त त्रुटियाँ मार्ग में स्वत: समाप्त हो जाती हैं ।
बैठने वाले का भाग्य भी बैठ जाता है , और जो खड़ा हो जाता है तो उसका भाग्य भी खड़ा हो जाता है । तथा जो सो जाते हैं तो उनका भाग्य भी सो जाता है । साथ ही जो चलने लगते हैं तो उनका भाग्य भी चलने लगता है । सोने वालों के लिए सदा ही कलियुग है । जिन्होंने श्रम करने का विचार कर लिया , उसके लिए द्वापर प्रारम्भ हो गया । जो कर्म करने के लिए खड़े हो गये उनके लिए त्रेता आ गया और जिन्होंने काम करना प्रारम्भ कर दिया उनके लिए सतयुग आ गया _ ' कलि: शयानो भवति , संजिहान्स्तु द्वापर: । उत्तिष्ठाम त्रेता भवति कृतं सम्पद्यते चरम ॥ '
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