गुरुवार, 31 अक्तूबर 2013

कस्मै देवाय हविषा विधेम

शरीर में स्थित चैतन्य को आत्मा और शरीर के बाहर विराट को परमात्मा 



" कस्मै देवाय हविषा विधेम " एक बहुत बड़ा प्रश्न ऋषियों के सम्मुख था , अर्थात किस देवता के लिए यज्ञ में आहुति दी जाये। यह सब विचार करते हुवे उन्हें लगा कि कौन सी ऐसी शक्ति है जो पूरे विश्व का संचालन करती है । पंचमहाभूत भू, जल , अग्नि , वायु और आकाश एवं प्रकृति का नियंता कौन है ? इसी को परम तत्त्व या परमात्मा कहा जाता है ।

 यह ब्रह्माण्ड का सृजन करता है , एक से अनेक होता है । वह शरीर के अन्दर भी है और बाहर भी है । शरीर में स्थित चैतन्य को आत्मा कहते हैं और शरीर के बाहर विराट को परमात्मा कहते हैं । उसे पारदर्शी मन के द्वारा देखा जा सकता है । उसे जानने का उपाय योग है। योग द्वारा मन को निर्मल किया जा सकता है । 


भारतवर्ष में दो ही ऐसे चिंतन हैं , जिनके कारण विश्व हमारा आदर करता है -- सांख्य और योग । सांख्य का अर्थ है संख्या का गणित करके जड़ - वर्ग शरीर , इन्द्रिय , मन आदि को पृथक करके आत्मा को जान लेना। आत्म- कल्याण के लिए ईश्वर की भक्ति करनी चाहिए। संख्यों का कहना है कि तत्त्वों की गिनती करनी चाहिए। कपिल ने सांख्य में प्रकृति को स्वतंत्र रखा है , उसके सिर पर कोई ईश्वर नहीं ; पर गीता के सांख्य में ईश्वर प्रकृति का नियंत्रक है।

 सांख्य में आत्म-ज्ञान के लिए अंतर्मुख होना पड़ता है और योग में ईश्वर का मुख देखने के लिए अपना मुख ऊंचा उठाना पड़ता है। योग का अर्थ है अनुशासन। परमात्मा के दो रूप हैं -- निर्गुण और सगुन ; जो ज्यादा विकसित मस्तिष्क के व्यक्ति हैं , वे निर्गुण निराकार का चिंतन करते हैं तथा वे ' प्रणव ' को अपने ध्यान का आधार बना लेते हैं।

 जो भावना-प्रधान और कोमल ह्रदय के व्यक्ति हैं , वे सगुण साकार की भक्ति करते हैं। भक्ति किसी भी इष्ट की हो सकती है। चाहे निर्गुण हो या सगुण , दोनों के लिए योग अपेक्षित है। योग का अर्थ मन में समता का होना है। यदि वह अपना है , वह पराया है , यह शत्रु है या मित्र ; ऐसा भेद बना रहे तो विषमता होगी ही। 


कर्म ऐसे बीज हैं , जो जन्म लेने की विवश करते हैं। पहले कर्म , फिर वासना , फिर संस्कार , संस्कारों के अनुसार फिर अच्छे - बुरे कर्म , ऐसे ८४ लाख योनियों के चक्कर में जीव घूमता रहता है। यदि इस चक्कर से मुक्ति पाना चाहते हैं , तो बीज में अंकुर पैदा करने वाली शक्ति को नष्ट करना होगा , बीज को निर्बीज करना होगा ।


 साथ ही मनष्य को प्रत्येक बात में तर्क-वितर्क करना छोड़ना होगा , क्योंकि तर्क-वितर्क की स्थिति व्यक्ति को परमात्मा से अलग कर देती है तभी मन एकाग्र हो सकता है। वाणी का निरोध करना होगा , व्यर्थ के शब्द मन में व्याकुलता उत्पन्न करते हैं। यदि परमात्मा से मिलना है तो बोलना कम करके मौन धारण करना होगा।&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&



1 टिप्पणी:

  1. यजुर्वेद में किस कौन सा शब्द 32 बार आया है !कृपया समाधान करें |इति

    जवाब देंहटाएं