सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

इस क्षण होश में हैं तो वह वर्तमान का मालिक

प्रगति का यथार्थ माप- दंड समता है ,संवेदना नहीं 




 मुख्य बात है धर्म धारण करना । धर्म धारण करने के लिए अभ्यास करना होता है। प्रयास करना होता है।विधि को जानने के लिए भीतर की सच्चाई को जानना है। जान कर समता में स्थित रहना है। प्रगति का यथार्थ माप- दंड समता है ,संवेदना नहीं । संवेदना के प्रकट होने पर यदि समता खो दी , फिर राग पैदा करना शुरू कर दिया , द्वेष पैदा करना शुरू कर दिया , तो प्रगति नहीं हो रही। राग और द्वेष का संग्रह अत्यधिक है। जब-जब यह संग्रह उभर कर आये , तब-तब अपनी ओर से संवर कर लें , रोक लगा दें ,यानि उभार की वजह से नया संस्कार न बनने दें। उस पर रोक लगा दें। यही संवर है। 



संवर-क्रिया पर रोक लगाने पर , यह निर्जरा होनी शुर हो जाएगी । सारे संवरों में सबसे अच्छा मन का संवर है। ओर वह भी सम्पूर्ण मानस का संवर , अंतर्मन की गहराइयों तक का संवर। ज्यों - ज्यों समता में रहने का अभ्यास बढ़ेगा ; चेतन -अर्धचेतन -अचेतन की दीवार टूटनी शुरू हो जाएगी। प्रकृति के इस नियम को अनुभूतियों से समझेंगे ,तो स्वत: कल्याण प्रारंभ हो जायेगा।


 जब अनुभूतियों के स्तर पर समझ में आने लगेगा , तब गहरा संवर होने लगता है। दुःख-विमुक्ति का रास्ता खुलने लगता है। संवर-क्रिया पर रोक लगाने पर , यह निर्जरा होनी शुर हो जाएगी । सारे संवरों में सबसे अच्छा मन का संवर है। ओर वह भी सम्पूर्ण मानस का संवर , अंतर्मन की गहराइयों तक का संवर। ज्यों - ज्यों समता में रहने का अभ्यास बढ़ेगा ; चेतन -अर्धचेतन -अचेतन की दीवार टूटनी शुरू हो जाएगी। प्रकृति के इस नियम को अनुभूतियों से समझेंगे ,तो स्वत: कल्याण प्रारंभ हो जायेगा।


 जब अनुभूतियों के स्तर पर समझ में आने लगेगा , तब गहरा संवर होने लगता है। दुःख-विमुक्ति का रास्ता खुलने लगता है। जिस कर्म -संस्कार का बीज डाला , उसका फल आया और वह समाप्त हुवा ,लेकिन नया बीज फिर पड़ा , फिर फल आया ; इस प्रकार क्रम चलता रहता है। अंत होता ही नहीं। लेकिन उत्पन्न होकर सर्वथा क्षय हो जाये तो कल्याण हो जाये। हर व्यक्ति , जिसने-जिसने भी सही माने में संवर करना शुरू कर दिया उसी की कर्म - निर्जरा शुरू हो जाएगी। जितना भी कर्म - संग्रह क्यों न हो , यदि नया संग्रह बंद कर दें तो पुरानों को समाप्त होने में कम समय लगेगा ,पर वे धीरे-धीरे क्षय होंगे ही।


नया संस्कार एक आहार है, पुराने संस्कारों का फल दूसरा आहार है। इन दोनों में से कोई-न-कोई आहार मिलता है तो यह चित्त धारा आगे बढती है। चित्त-धारा का शरीर की संवेदनाओं से गहन सम्बन्ध है। अत:चित्त -माईंड -पदार्थ - मैटर-में और पदार्थ चित्त में परिवर्तित हो जाता है। उदाहरणत: हर क्रोध का संस्कार अग्नि -तत्व ही प्रकट करता है ,अत: अग्नि-धातु ही जागेगी। देखते जायेंगे और प्रतिक्रिया नहीं करेंगे , तो ये संग्रहीत संस्कार स्वत: क्षीण होते चले जायेंगे ,इसका प्रमुख कारण समता ही है।

 जो समता में रहता है , उसका उत्तम मंगल सधने लगता है। हर आदमी अपना मालिक स्वयम है। वह अपनी गति स्वयम ही बनता है। लेकिन यदि इस क्षण होश में हैं तो वह वर्तमान का मालिक बन गया। सारी साधना इसी बात के लिए है कि इस क्षण होश है कि नहीं। बौद्धिक स्तर पर समझ कर व्यवहार में उतरना है, अभ्यास में उतरना है। धारण करना है, धर्म धारण करते हैं तो सुख ही मिलता है। परिणामत: सफलता अवश्य ही मिलती है।"भोगत-भोगत भोगते , बंधन बंधते जाएँ । देखत-देखत देखते , बंधन खुल ते जाएँ । । इति =



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें