शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

सही समय पर सही बात बोलना

 व्यावहारिक जीवन की सफलता के लिए वाक्चातुर्य के साथ व्यवहार- कुशलता, शिष्टता, सज्जनता, मधुरता आदि 



कौन व्यक्ति कैसा है ? इस वास्तविकता का पता लगाना कठिन है। इसके लिए लम्बे समय का सान्निध्य और गतिविधियों का गंभीरता पूर्वक पर्यवेक्षण करना पड़ता है। उसमें कमी रहे तो संपर्क क्षेत्र के लोगों के सम्बन्ध में भी गलतफहमी रह जाती है। जिसे खरा समझा गया था, वह खोटा निकल जाता है। कई बार उपेक्षितों में भी ऐसे निकल जाते हैं, जिन्हें कीचड़ का कमल या कोयले की खान का हीरा कहा जा सके, किन्तु यह गहरी छान- बीन के बाद ही पता चलता है। सभ्य व्यक्ति की वाणी में शालीनता होती है। जो बोलते ही प्रकट हो जाती है। अपनी अभिव्यक्ति विशिष्ट स्तर की होना और दूसरों के प्रति आदर भाव रखना , ये दोनों ही परस्पर मिलकर वाणी की शालीनता को प्रकट करते हैं। वाणी प्रथम प्रयोग है। वह इतनी सशक्त है कि शब्द कुछ भी हों , बोलने वाले की सुसंस्कारिता- कुसंस्कारिता का परिचय खुले पन्नों की तरह प्रस्तुत कर देते हैं। इसके बाद शिष्टता की परिधि में व्यवहार के शब्द आते हैं। जैसे बैठने के लिए स्वेच्छा से वह जगह चुनना , जो सर्वसाधारण के लिए मानी जाती है। वहां बैठने के बाद यदि ऊंचे आसन पर निकट आकर बैठने के लिए विशेष आग्रह किया जाए तो ही बैठना चाहिए। अपनी ओर से तो यथासम्भव शिष्टता का निर्वाह होना ही चाहिए, चाहे उसका निर्वाह कितना सीमित क्यों न बन पड़े। वाणी के शिष्टाचार का हर हालत में निर्वाह होना ही चाहिए। किसी से कटु-शब्द न बोले जाएँ, न किसी को धमकी चुनौती आदि दी जाए।




देखा गया है कि अशिष्टता के व्यवहार का -- आवेश में आकर उबल पड़ने का स्वभाव बचपन से प्रारंभ हो जाता है और वह धीरे- धीरे जढ़ पकड़ता जाता है। बड़ा होने पर वह पक जाता है, पर इससे फिर पीछा छुड़ाना कठिन हो जाता है। बड़ी आयु हो जाने पर भी कितने ही लोग गुण, कर्म,स्वभाव की दृष्टि से बचकाने ही बने रहते हैं। अपने परिवार में भी शिष्टता के वातावरण का प्रचलन रहना चाहिए। सभी सदस्य एक- दूसरे को सम्मान दें, उचित मर्यादा में प्रशंसा करें और प्रोत्साहन दें। दिल तोड़ने वाली , निराश करने वाली बातें न कहें। सम्मान से सद्भाव बढता है , शिष्टता का व्यवहार करने वाला सम्मानित होता है। इससे अनायास ही दूसरों का सद्भाव - सहयोग अर्जित होता है। साथ ही अपने विकसित व्यक्तित्व से अन्यों को भी वह प्रभावित करता है। एक रूप में इससे प्रत्यक्ष लाभ ही होता है।


बातचीत करना वस्तुत: एक कला है। लेकिन कौन किसका किस प्रकार प्रभाव ग्रहण करता है ? इसका आकलन किया जाए तो यही ज्ञात होता है कि कई लोगों की बातें ऊबा देने वाली या मन को व्यथित करने वाली अथवा ह्रदय को चोट पहुँचाने वाली होती हैं। कई व्यक्तियों की बातें सुनकर ऐसा लगता है कि उनकी बात का न सिर है न पैर। न तो वे अपने शब्दों का प्रयोग समझ- बूझ कर करते हैं कि जिससे श्रोता प्रभावित हो सकें। न ही वह यह जानकर बातें करते हैं कि किस अवसर पर कैसी बात करनी चाहिए। क्योंकि उन्हें इस सम्बन्ध में कोई ज्ञान ही नहीं। परिणामत: उनकी बात बोरियत लाने वाली और अप्रासंगिक ही हो जाती है। विश्व- विख्यात विचारक स्वेट मार्डेन के अनुसार व्यावहारिक जीवन की सफलता के लिए वाक्चातुर्य के साथ व्यवहार- कुशलता, शिष्टता, सज्जनता, मधुरता आदि सद्गुण यदि व्यक्ति के जीवन में समाहित हो जाएँ तब जीवन- समर में सफलता मिलना सुनिश्चित है। श्रेष्ठ वाक्पटु होना , लोगों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करना तथा उनसे सहयोग प्राप्त करना , अपनी बातचीत में प्रभाव उत्पन्न करना एक महत्त्वपूर्ण उपलब्द्धि है।


व्यवहार- कुशलता और वाक्चातुर्य पुस्तकों का विषय नहीं है। न ही वह उपदेश सुनकर ही सीखा जा सकता है। यह अन्तरंग का विषय है , जिसे विवेक से प्राप्त किया जा सकता है। फिर भी कुछ ऐसे सूत्र हैं , जिनके आधार पर विवेक जागृत किया जा सकता है। साथ ही अनुभव के आधार पर वाक्पटुता अर्जित की जा सकती है। वाक्पटुता के लिए सर्वप्रथम मन से संकोच या झिझक को निकाल देना चाहिए। संतुलन और धैर्य बनाकर रखा जाना चाहिए , अनिश्चितता की मन:स्थिति नहीं रहनी चाहिएशब्द- विन्यास में मधुरता, शालीनता और सौहार्द्रता आवश्यक है। भाषा का सारगर्भित एवं अर्थपूर्ण होना अनिवार्य है। सुनने वाले की रूचि का ध्यान रख कर संक्षिप्त रूप से बात समाप्त करने की आदत बनानी चाहिए। अभद्र और गंदे उदाहरण , अपशब्द और व्यंग्यात्मक , आलोचनात्मक भाषा का प्रयोग शिष्ट लोगों के लिए शोभा नहीं देता, अत: वार्तालाप में इसका विशेष ध्यान रखना चाहिए।


जहाँ तक हो सके अपनी बात संक्षिप्त और अर्थपूर्ण कहने की आदत डालनी चाहिए। इससे गलतियाँ भी कम होती हैं और वार्तालाप भी अर्थपूर्ण बना रहता है। कुशल बातचीत के लिए बातूनी होना कोई आवश्यक नहीं है। वस्तुत: वाकचातुरी और अधिक बोलने में परस्पर कोई सम्बन्ध ही नहीं है , दोनों भिन्न-भिन्न हैं। वाक्चातुर्य जहाँ एक गुण है , वहीँ वाचालता की गणना दोषों में की जाती है। अत: वाक्पटुता प्राप्त करने के लिए यह भ्रम मन से ही निकाल देना चाहिए कि वाक्पटु को बोलते ही रहना चाहिए। नपे-तुले और सार्थक शब्दों में मंतव्य पूरा करने की बात का अभ्यास अधिक उपयुक्त रहता है। ऐसे लोग सामाजिक जीवन में अधिक सफल होते हैं और अधिक सम्मान प्राप्त करते हैं। वाचाल और कम जानकारी रखने वाले हलके स्तर के माने जाते हैं और असम्मान के पात्र बनते हैं। सही अर्थों में व्यक्तित्त्व - सम्पन्न वे ही होते हैं , जिन्हें सही समय पर सही बात बोलना आता है। वस्तुत: इसे ही शिष्ट- व्यवहार की संज्ञा दी जा सकती है।&&&&&&&&&&&&&&&&&




1 टिप्पणी:

  1. बहुत ही शिक्षाप्रद एवं ज्ञानवर्धक ब्लॉग लगा।धन्यवाद
    प्रदीप नागपाल

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