गुरुवार, 31 अक्तूबर 2013

सत्य एक रूप से परमात्मा ही

सत्य वह है , जिसमें किसी प्रकार का परिवर्तन न किया जा सके  




अहिसा के बाद सत्य को रखा गया है। आज सत्य का सबसे अधिक दुरूपयोग हो रहा है। आज सत्य को जीवन में उतारने की है। वाणी से जो कहा जाता है , वही मन का भी अभीष्ट हो और इन्द्रियों व मन से जैसा कुछ देखा , सुना , अनुभव किया गया हो दूसरों को ठीक वैसा समझाने के लिए बिना छल कपट के जो वाणी का उच्चारण किया जाता है , वही सत्य है। 

सत्य वह है , जिसमें किसी प्रकार का परिवर्तन न किया जा सके। सत्य एक रूप से परमात्मा ही है , अत:जीवन में सदा सत्य का ही आचरण करना चाहिए। वाणी सत्य के द्वारा ही पवित्र करनी बोलनी चाहिए। जल वस्त्र के द्वारा छान कर पीना चाहिए। दृष्टि द्वारा स्थान पवित्र करके पैर रखना चाहिए और मन से पवित्र करके व्यवहार करना चाहिए।

महाभारत में सत्य पालन पर बल देते हुवे , उसकी महिमा को प्रस्तुत करते हुवे कहा गया है-- " नास्ति सत्यात्परो धर्मो नानृतात पातकं महत " अर्थात सत्य से बढ कर कोई धर्म नहीं है, झूठ से बढ कर कोई पाप नहीं है।

 वाणी सत्य बोलनी चाहिए , सब प्राणियों के उपकार के लिए होनी चाहिए न कि जीवों की हानि के लिए इसका प्रयोग होना चाहिए। यदि आप के सत्य से किसी की हानि होती है , तो वह सत्य नहीं हुवा , वह तो पाप हो गया। सत्य के विषय में कहा गया है -- " सत्यस्य वचनं श्रेय: सत्यापि हितं वदेत " अर्थात सत्य- वचन उत्तम है , पर वह सत्य -वचन सदैव हितकर ही होना चाहिए।

 महाभारत में सत्य के १३ प्रकार बताये गयें हैं -- १ सत्यपूर्ण वाणी बोलना , २- सभी प्राणियों पर सम-भाव , ३- इन्द्रियों का दमन, ४- किसी की उन्नति ईर्ष्या नहीं , ५- क्षमा-भाव । ६- लज्जाशीलता , ७- सहनशीलता , ८- दूसरों के दोष नहीं देखना , ९- त्याग-भाव , १०- प्रभ-स्मरण , ११- उत्तम आचरण , १२- धैर्य - धारण तथा १३ - अहिंसा - पालन । यह तेरह प्रकार का सत्य है। अर्थात इस प्रकार के गुण-धर्म जिस व्यक्ति में हों , वह सत्य- परायण माना जाता है। इन सब परिस्थितियों में बुद्धि को सम रखने से ही सत्य एवं परम सत्य की प्राप्ति होती है।&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें