मंगलवार, 8 अक्तूबर 2013

शरीर उस परमात्मा के चलते - फिरते मंदिर

 भोजन करता है उसे पचाने वाला ही आत्म-स्वरूप है 


शरीर उस परमात्मा के चलते - फिरते मंदिर हैं। परमात्मा जगत का उपादान कारण है और निमित्त कारण भी है। उसके अतिरिक्त अन्य कोई कारण है भी नहीं। वह जगत का कारण भी है और कार्य भी है। वह सभी को सम्भाले हुवे है। ये पञ्च महाभूत, मन, बुद्धि , अहंकार, शरीर, इन्द्रियां आदि सब इसी एक से उत्पन्न होते हैं। 


यह अस्तित्व बलांश से जगत का उत्पादन कारण और ज्ञानांश से निमित्त कारण बनता है। चैतन्य सब में एक है। योग से अपने मन को निर्मल करके अन्दर ही आत्मा को अनुभव कर सकते हैं। तत्त्व तो एक है , उसके हम दो नाम रख लेते हैं -- आत्मा और परमात्मा। आत्मा रूपी हीरे को सम्भाल कर रखा गया है। उसकी सुरक्षा के लिए एक के बाद एक पांच कोठरियां बना दी गयी हैं।


 पहली कोठरी अन्न -रस से पुष्ट होने वाला यह स्थूल शरीर है। दूसरी प्राणों की तथा तीसरी कोठरी मन की है। चौथी विज्ञानं की है अर्थात पदार्थ का बोध करने वाली बुद्धि की है। पांचवीं कोठरी विषय- सेवन से मिलने वाले क्षणिक आनंद की है। मनुष्य विषय- आनंद में आसक्त हो जाता है , उसी में खो जाता है , परमात्मा स्वरूप आत्मा को पहचानता ही नहीं। रूप , रस , गंध आदि विषय बहुत स्थूल हैं। इनकी अपेक्षा इन्द्रियां सूक्ष्म हैं , इन्द्रियों से मन सूक्ष्म है , मन से बुद्धि सूक्ष्म है, बुद्धि से अहंकार सूक्ष्म है, पर इन सभी से सूक्ष्म आत्मा है।

गीता के अनुसार -- " हृद्देशे अर्जुन ! तिष्ठति " अर्थात आत्मा ह्रदय में निवास करता है। मनुष्य जो भक्ष्य , भोज्य , चोष्य एवं लेह्य चार प्रकार का भोजन करता है उसे पचाने वाला ही आत्म-स्वरूप है। यह शरीर के अन्दर होने वाली ज्योति - अध्यात्म - ज्योति है। योगी - गण ह्रदय- मंदिर में इसी ज्योति का ध्यान करते हैं। स्पष्टत : मानसिक शांति के लिए ध्यान का होना अनिवार्य है और ध्यान का कोई आधार होना चाहिए। वह आधार ईश्वर या धर्म ही हो सकता है। बिना आधार के मन भटकता रहता है।&&&&&&&&&&&&&&&&&




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