शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2013

अष्टांग योग स्वयं में परिपूर्ण

यम , नियम , आसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , धारणा , ध्यान और समाधि , ये योग के आठ अंग हैं 




यम , नियम , आसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , धारणा , ध्यान और समाधि , ये योग के आठ अंग हैं -- " यमनियम आसन प्राणायाम प्रत्याहार धारणाध्यानसमाधयो अष्टावन्गानि "। इन आठ अंगों की दो भूमिकाएँ हैं-- बहिरंग और अन्तरंग। ऊपर बताये गये आठ अंगों में से पहले पांच को बहिरंग कहते हैं, क्योंकि उनका विशेष रूप से बाहर की क्रियाओं से सम्बन्ध है। शेष तीन धारणा , ध्यान और समाधि अन्तरंग हैं। इनका सम्बन्ध केवल अंत:करण से होने के कारण इनको अन्तरंग कहते हैं। महर्षि पतंजलि ने एकसाथ इन तीनों को ' संयम ' कहा है। इन तीन अंगों की साधना अन्दर से शुरू होती है। इन में बहिरंग योग का पांचवा आचरण प्रत्याहार अन्तरंग और बहिरंग योग को मिलाने के लिए सेतु का काम करता है। प्रत्याहार का अर्थ ही वापिस लौटना होता है।


प्रत्याहार तक की साधना करके अंधकार रूपी आवरण का नाश प्रारंभ हो जाता है , पर परम प्रकाश की अनभूति अभी तक नहीं हो पाती । वैसे नियम तो वही है , कि आवरण के हटते ही परम प्रकाश का अनुभव होना चाहिए , क्योंकि आवरण भंग और परम प्रकाश की अनुभूति -- इन दोनों का क्षण एक है , परन्तु यहाँ पतंजलि कहते हैं कि आवरण का हटना ही प्रकाश की अनुभूति नहीं है। ऐसा नहीं है कि आवरण के हटते ही आत्मानुभूति हो गयी। यहाँ तात्पर्य है , आवरण उतर जाए तो प्रकाश की अनुभूति की संभावना पक्की होजाती है। दूसरी बात यह है कि यदि आत्मा का अनुभव हो जाए , तो वहां करने को कुछ बचता ही नहीं। किन्तु प्रत्याहार से " तत: क्षीयते च प्रकाश आवरणं " आवरण के क्षीण होने पर भी आत्मा - रूपी सूर्य का प्रकाश अभी दिखाई नहीं दिया है , अत और भी साधना शेष है।


उदाहरण के लिए सूर्य को ग्रहण लगा हो , उसे देखने के लिए लोग काले शीशे का प्रयोग करते हैं , अथवा काले शीशे में सूर्य को देखने पर आँखों को कोई हानि नहीं पहुंचती। नहीं तो सूर्य की तेज ज्योति आँखों को अँधा भी कर सकती है। एक क्षण सूर्य की ओर देखने से ही आँखों के सामने अँधेरा छा जाता है। हम नहीं जानते कि कितने जन्म अँधेरे में बिताए हैं , कभी कोई प्रकाश की किरण हमारे अंतस में उतरी ही नहीं , अंधकार का ही अनुभव किया है, प्रकाश कभी दृष्टि- गोचर हुवा ही नहीं। अत: आवरण के हटने मात्र से प्रकाश का अनुभव हम नहीं कर सकते। अभी भी दूरी बनी हुयी है , अभी और रास्ता तय करना है। तीन योग अंगों एवं विधियों की प्राप्ति अभी तक शेष है, ये तीन योग के अंग धारणा ,ध्यान और समाधि हैं। इन तीनों की एकता में ही संयम है।


जीवन का परम लक्ष्य आत्मा या स्वयं को पहचानना है। उसको पहचानने का का एक ही मार्ग योग है। पहले सभी विषयों को मन से निकाल दें , मात्र आप स्वयं हो जाएँ। दूसरी बात जिन परिस्थतियों के कारण हमारा मन इधर-उधर भटकता है , उन परिस्थितियों से पार ही जाएँ। तीसरी बात सतत चैतन्य का चिंतन करे , अनंतर चारों ओर ही शांति का साम्राज्य हो जाता है। यदि साधना करते - करते धारणा , ध्यान और समाधि एकत्रित हो जाएँ तो संयम का निर्माण होता है , यहाँ पर संयम का अर्थ है कि तीनों अंगों का आचरण हो जाने पर द्वैत दिखाई देता ही नहीं है।

 कर्त्ता , कर्म , कर्ण; द्रष्टा , दर्शन , दृश्य ; भोक्ता, भोज्य , भोजन; आदि की त्रिपुटी समाप्त हो जाती है। व्यक्क्तिगत- चेतना व्यापक- चेतना का रूप ले लेती है। सर्वत्र आत्मा ही आत्मा की ही प्रतीति होने लगती है। योग के अन्तरंग अंग एक दूसरे के पूरक हो जाते हैं। हम सामान्यत: देखते हैं कि तिपाई पर राखी थाली स्थिर रहती है। तीनों एक दूसरी की पूरक और सहायक होती हैं। ऐसे ही धारणा , ध्यान और समाधि तीनों आत्म- ज्ञान की स्थिरता में सहायक होती हैं। इस प्रकार अष्टांग योग स्वयं में परिपूर्ण है तथा प्रत्येक अंग जहाँ एक माला के समान हैं वहां वे परस्पर पूरक और सहायक हैं । योग के अन्तरंग एवं बहिरंग सभी अनन्योआश्रित हैं, तथा सभी का सिद्धि में पूर्ण एवं अहम योगदान है।****************************************************



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