शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

शक्तिशाली व्यक्ति कभी भीख नहीं मांगता


दुर्जन पुरुष के लिए विद्या विवाद का कारण बनती है और सज्जन पुरुष के लिए विद्या ज्ञान के विकास का माध्यम बनती है  



शक्तिशून्य जीवन वैसा ही होता है जैसे आग बुझ जान पर राख का ढेर , जब आग जलती है तो प्रत्येक व्यक्ति उससे बच कर निकलता है। उसमें भय समय रहता है कि कहीं पैर जल न जाए। जब अग्नि शांत हो जाती है, राख का ढेर रहता है, तब व्यक्ति बिना किसी हिचक के उसको रौंदता हुवा चला जाता है। राख और जलती हुयी आग में जो अंतर है , वही अंतर है शक्तिहीन और शक्तियुक्त जीवन में जिसमें अपनी शक्ति नहीं होती , उसका काम भीख मांगना होता है। शक्तिहीन व्यक्ति भीख मांगने के अतिरिक्त और कर ही क्या सकता है? वह दया की भीख मांगता रहता है। कृपा और करुणा की भीख मांगता रहता है। शक्तिशाली व्यक्ति कभी भीख नहीं मांगता वह अपनी शक्ति के आधार पर ऐसा कुछ करता रहता है , जिससे वह स्वयं केंद्र बन जाता है।
दुनिया का सबसे बड़ा तत्त्व शक्ति है। शक्तिशाली होना अपने आप में एक महान उपलब्द्धि है। ज्ञान और आनंद के होने के बाद भी यदि शक्ति नहीं है तो कुछ भी नहीं है। शक्ति के बिना ज्ञान का कोई उपयोग नहीं होता। कर्मशास्त्रीय भाषा में कहा जा सकता है कि शक्ति के द्वारा ही ज्ञान, आनंद और जाग्रति का उपयोग होता है। अनंत चतुष्टयी के चार अवयव अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत आनंद और अनंत शक्ति हैं। इस प्रस्तुति में शक्ति को सबसे बाद में रखा गया है किन्तु इसका उपयोग सबसे पहले होता है। अनंत ज्ञान अनंत शक्ति से ही स्फुटित होता है , जो व्यक्ति शक्तिशाली नहीं होता वह ज्ञान को उपलब्द्ध नहीं के सकता। ध्यान भी उसी व्यक्ति को सधता है, जिसका शारीरिक संगठन शक्ति- सम्पन्न होता है। कमजोर व्यक्ति ध्यान में स्थिर नहीं हो सकता। ध्यान में सबसे पहली आवश्यकता है -- कार्य- सिद्धि। ध्यान में बैठ गया तो घंटों तक बैठा रहा। ध्यान में खड़ा होने का मतलब है ध्यान का भंग हो जाना। जब हमारी उपस्थिति शरीर में होती है , तभी बाधाएं उपस्थित होती हैं।

अहंकार और प्रमाद शक्ति के दो प्रमुख अवरोधक हैं। जब तक प्रमाद नहीं मिटता , तब तक दिव्य शक्ति का जागरण नहीं हो सकता। प्रमाद मिटने पर ही दिव्य शक्ति प्रकट होती है। प्रमाद के कारण शक्ति का व्यय होता रहता है। आलस्य, नींद आदि प्रवृत्तियां शक्ति को क्षीण करती रहती हैं। प्रत्येक व्यक्ति में दिव्य शक्ति होती है। परन्तु व्यक्ति अपनी शक्ति उपयोग नहीं करता। दिव्य शक्ति वह है जो दूसरे के अहित में कभी प्रवृत्त नहीं हो सकती। साधु और दुर्जुन पुरुष में अंतर ही क्या है ? दुर्जन पुरुष के लिए विद्या विवाद का कारण बनती है और सज्जन पुरुष के लिए विद्या ज्ञान के विकास का माध्यम बनती है। दुर्जन व्यक्ति के लिए धन अहंकार का कारण बनता है, पर सज्जन व्यक्ति के लिए धन दान का निमित्त बनता है। दुर्जन व्यक्ति की शक्ति दूसरों को पीड़ित करने में लगती है, जबकि सज्जन व्यक्ति की शक्ति दूसरों की रक्षा में लगती है। सज्जन और दुर्जन व्यक्ति में यह अंतर होता है।

तेरा पंथ के आचार्य मघवागणि संस्कृत के पंडित थे। एक संस्कृत का पंडित उनके पास आया। बात-चीत चली चर्चा के प्रसंग में पंडितजी ने बड़ा अहंकार प्रदर्शित किया। ऐसा दिखावा किया कि वह ही पंडित है दुनिया में। मघवागणि बड़े विनम्र और मृदु थे। पंडितजी अहंकार में बोलते गये और मघवागणि शांत- भाव स सुनते रहे पंडितजी अहंकार के आवेश में थे। अशुद्ध बोल गये। मघवागणि ने सुना , पर शांत रहे। जब चर्चा समाप्त हुयी पर सब लोग विसर्जित हो गये तब मघवागणि ने पंडितजी से कहा-- " आपने यह अशुद्ध प्रयोग कैसे किया ? " पंडितजी ने मौन रहकर उसे स्वीकार किया। उनके अहंकार का पारा उतर गया। वे मघवागणि के चरणों में झुक कर बोले -- " महाराज ! आपने मेरी लाज रख दी। यदि आप परिषद् के बीच में टोक देते तो मेरी सारी प्रतिष्ठा स्स्माप्त हो जाती। " सज्जन व्यक्तियों का अहंकार दूसरों को चोट पहुँचाने के लिए नहीं होता। उनकी विद्या विवाद के लिए नहीं होती। विद्या ज्ञान के लिए होती है और विनम्रता के साथ ज्ञान को प्रस्तुत करती है।

दिव्यशक्ति वह होती है जो दूसरों को पीड़ा नहीं पहुंचाती। ऐसी शक्ति अप्रमाद से ही संभव होती है। जब तक व्यक्ति में प्रमाद बहुलता होती है तब तक दिव्य शक्ति का जागरण नहीं हो सकता। प्रमत्त व्यक्ति ही दुनिया में भय पैदा करता है। भगवान महावीर के शब्दों में -- ' प्रमत्त को भय रहता है। डरा हुवा आदमी भय की सृष्टि करता है। गाय सामने खडी है, डरती नहीं है, तब तक न गाय को डर है और न पास से गुजरने वाले को डर है। यदि वही गाय डरती है तो पूंछ को ऊपर किए हुवे भयंकर मुद्रा में खड़ी होती है। उस समय वह स्वयं तो डरती ही है और दूसरे को भी डरा देती है। डरा हुवा आदमी डर की सृष्टि करता है। अप्रमत्त व्यक्ति अभय होता है, उसमें भय नहीं रहता।'

जीवन में सबसे बड़ी उपलब्द्धि जागना है। जब आदमी जाग जाता है तब सारी अच्छाइयां एक- एक करके आने लगती हैं। अत: मनुष्य को जागने का उपदेश दिया गया है--' मनुष्यों ! जागो। जो जागता है उसकी बुद्धि बढती है।' आज तक जो लिखा गया , वह जागृत अवस्था में ही लिखा गया है। यदि कोई साधना करते- करते थक जाता है तो वह नींद में भी जागता रहता है। वैसे साधक नींद में भी लिखते हैं। बिना जागरूकता के कोई कुछ भी नहीं लिख सकता। प्रत्येक कार्य जागरूकता में ही होता है। प्रमाद और निद्रित अवस्था में कुछ भी नहीं होता।


शक्ति- व्यय के तीन कारण हैं-- काया की चंचलता, वाणी कि चंचलता और मन की चंचलता। जो व्यक्ति शरीर मन और वाणी की स्थिरता को साध लेता है उसकी शक्ति का व्यय रुक जाता है। यदि काया, मन और वाणी का संयम हो जाए , कायोत्सर्ग हो जाए, वाक-संयम और मानसिक संयम हो जाए तो बहुत- सी शक्ति सुरक्षित रह जाती है।प्रश्न है कि दिव्य शक्ति के जागरण का क्या लाभ है ? जिस व्यक्ति की दिव्य शक्ति जाग जाती है वह कठोर परिस्थिति को झेल लेता है। भयंकर कष्ट को भोगते हुवे भी वह खिन्न नहीं होता। वस्तुत: एक स्थिति में कष्ट को सहर्ष सहन किया जाता है और दूसरी स्थिति में कष्ट के सामने घुटने टेक दिए जाते हैं। जिसकी दिव्य शक्ति जागृत है। अजेय है, उसे कष्ट सहने में बड़ा आनन्द आता है। दिव्य शक्ति के प्रति जागरूक व्यक्ति कभी अपमान का बदला अपमान से नहीं लेता। ध्यान दिव्य आनंद के विकास और दिव्य- चक्षु के उद्घाटन का प्रयोग है,यदि इस दिशा में चरण बढ़ेंगे तो निश्चित ही दिव्य आनंद अभिव्यक्त होगा। इसी से ही दिव्य अनुभव और दिव्य व्यक्तित्व का निर्माण होगा।************************

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