मंगलवार, 1 अक्तूबर 2013

छोटों से भी सीखने का प्रयास करना चाहिए।

 कृतज्ञता अपने दर्पण को स्वच्छ करने का प्रयास 


प्राय: बचपन से ही एक कहावत सभी ने सुनी होगी कि ,"चाइल्ड इज द फादर ऑफ़ मैन " अर्थात बच्चा व्यक्ति का बाप होता है। माँ- बाप बच्चे को तो बहुत कुछ सिखाने का प्रयास करते हैं। अच्छी -अच्छी सीख सदा - सर्वदा देते रहते हैं। अपना स्वयं का जीवन चाहे आदर्श रहा या नहीं , पर बच्चे का जीवन आदर्श ही नहीं , अपितु पूर्ण आदर्श बनाना चाहते हैं। भरसक उसके जीवन को आदर्श बनाने का प्रयास करते हैं , जो वे जीवन में कभी कुछ नहीं बन सके , पर अपने बच्चे को देकर उसे दुनिया का नायब तौहफा बनाना चाहते हैं।



 माता-पिता अपनी अधूरी , अपूर्ण एवं अमूर्त इच्छाओं को बच्चे के माध्यम से पूर्ण करना चाहते हैं। उनके अपने सोचे हुवे सपने वे अपने बच्चे के रूप में पूर्ण करना चाहते हैं। पूर्णता कि यह चाह माँ - बाप को कभी- कभी असंतुष्टि के कगार लाकर खड़ा कर देती है। हमें अपने बच्चे को बनाने से पहले स्वयं अपने को भी बनाने का प्रयास करना चाहिए। यदि बच्चे में अच्छे गुण हैं , तो उन्हें भी अपने जीवन में ढालने का प्रयास करना चाहिए। केवल देने भर का प्रयास ही नहीं , अपितु लेने का भी प्रयास करना चाहिए। 


खैर , जहाँ तक मेरा प्रश्न है ; मैंने मात्र कोरे उपदेश पर न ही बच्चे को देखा है , अपितु उससे भी कुछ ग्रहण करने का प्रयास भी किया है। मुझे अपने बेटे कि इस सन्दर्भ में कुछ बातें स्मरण हो उठती हैं। उन बातों को कहने में मुझे कुछ संकोच नहीं है। क्योंकि मेरा मन अब भी विभोर हो उठता है।अपने से बड़ा हो या छोटा , उसके प्रति अपनी कृतज्ञता अवश्य अभिव्यक्त करनीचाहिए । सीखना बड़ों से नहीं ,अपितु छोटों से भी सीखने का प्रयास करना चाहिए।

 कृतज्ञता अपने दर्पण को स्वच्छ करने का प्रयास है। धुंधले दर्पण में तस्वीर चाहे कितनी अच्छी हो , पर साफ नजर नहीं आ सकती। शीशे के साफ होते ही सब कुछ साफ- साफ हो जाता है। मेरा बेटा मेरा गुरु कैसे बन गया ? जब मैं याद करता हूँ तो मुझे यह पहली घटना स्मरण हो उठती है। बात १९९५ की है। कालेज में एक सर्कुलर आया था , जिसमें ओइम एवं प्रणव के विषय में लिखने को कहा गया था। वेद आदि शास्त्रों के साथ- साथ सभी सनातन धर्म - ग्रंथों में ओइम के महत्त्व को खोज कर निकालना था। उस प्रपत्र के अनुसार अनेक पुरस्कार भी थे , जिसमें प्रथम ३१ हजार तथा अंतिम दो हजार तक के पुरस्कार थे। कुलमिलाकर लगभग लाख से ऊपर तक के पुरस्कारथे।

 कालेज में वह प्रपत्र घूम कर मेरे पास आ कर ठहर गया। सभी की अपेक्षा थी कि इस विषय में मैं ही कुछ-न- कुछ लिख सकता हूँ। गुरुकुल कांगड़ी का स्नातक होने के कारण इस सन्दर्भ में मेरे पास सहज ज्ञान था। पर मैं स्वयं इस विषय पर लिखने से घबरा रहा था। न ही इस विषय में लिखने की मेरी कोई विशेष रूचि ही हो रही थी। मैंने वह प्रपत्र घर आकर अपनी स्टडी - टेबल पर रख दिया और इस विषय के बारे में लिखने का स्वयं मैं भूल ही गया था। मेरे बेटे की आदत थी कि वह मेरी मेज पर रखे कागजों को उलट - पुलट करता रहता था, इसी उलट- पुलट में कुछ दिन बाद वह प्रपत्र उसके हाथों में आ गया और उसने इसके बारे में मुझ से जानकारी चाही । मैंने भी उसे टालने का प्रयास करते हुए कहा --- अरे भई कुछ नहीं , यह तो बहुत मुश्किल काम है। मेरे बस का नहीं है। उसने कहा क्यों नहीं है ? इससे पूर्व वह मेरे प्रपत्र को पढ़ चुका था । तेरह वर्ष का वह बालक टीनेजर कहने लगा कि पापा ,कुछ नहीं , कम से कम दो हजार तो आपको मिल ही जायेंगे । आपका जाता ही क्या है ? बस लिखना ही तो है। यह उसका लालच बोल रहा था या और कुछ।


 उस समय तो मैंने उसे टाल दिया तथा बाद में काफी देर तक विचार करता रहा । पर उसका यह कहना मेरे लिए प्रेरणा का कारण बन गया। न चाहते हुवे भी लिखना शुर कर दिया , कुछ दिनों बाद इसमें मुझे रस और आनन्द आने लगा । दिन और रात मैं लिखने लगा । दिन को चैन नहीं और रात को आराम नहीं;आख़िरकार काम करता ही रहा । परिणामत: एकतीस हजार का सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार के साथ - साथ यश और ख्याति भी प्राप्त हुयी।

 उसी प्रकार की एक घटना अप्रैल २०१० की स्मरण हो उठती है। अप्रैल में मेरा बेटा मुम्बई सर्विस के लिए जा रहा था। उसके पास लैपटॉप है, वह प्राय: उसी पर ही अपना सारा कार्य करता है। कुछ वर्ष पूर्व कम्प्यूटर सेट लिया था , जो अब यूज नहीं हो रहा था। एक कबाड़ -सा बन कर रह गया था। जगह और घेर रहा था। मैंने बेटे से कहा कि इस कबाड़ को बेच दे। इसका अब कोई लाभ नहीं। उसने कहा कि बेचने से कुछ नहीं मिलेगा , अपितु इस सबको आपकी स्टडी टेबल पर रख देता हूँ। मैंने कहा कि मेरी टेबल पर जगह नहीं है। पर उसने जगह बनाकर यह सब मेरी टेबल पर रख दिया और कहा कि कम्प्यूटर देख कर लोगों पर रौब पड़ेगा।


 मैंने कहा कि खाली रौब से क्या होगा , मुझे तो इसे खोलना ही नहीं आता। उसने कहा कि सब आ जायेगा तथा मैं सिखा दूंगा। उसको तो समय नहीं मिल पाया ,पर एक गुरु के समान प्रेरित कर गया ,धीरे-धीरे मैंने खोलना सीखा। पहले इंटरनेट चलाना सीखा एवं इसके बाद हिंदी टाईपिंग भी सीखनी शुरू की। महीने भर में ही मैंने अपनी ई मेल, फेस बुक ब्लॉग लिखने शुरू कर दिए। महीने भर में ही मैंने पचास से अधिक ब्लॉग लिख डाले , जो इंटरनेट पर आने लगे। भला मैं यह क्यों न मानूँ कि वास्तव में मेरा बेटा मेरा गुरु है। इस कार्य में सहायता के लिए मैं अन्यों के प्रति कृतज्ञ होना जहाँ अपना पुनीत कर्तव्य समझता हूँ , वहां ऐसा अनुभव होता है कि मैं त्रिनेत्र - त्रिवेदी के साथ- साथ "थर्ड आई " प्राप्त करने में प्रयासरत हूँ। यह मेरा अहं नहीं ,अपितु यत्किंचित प्रयास और उत्साह ही है।******************

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