गुरुवार, 3 अक्तूबर 2013

धर्म पर सत्य आधारित


आचार से योग्यता और विचार से स्थिरता 


आचार शब्द व्यवहार , तात्पर्य , चरित्र और शील के लिए व्यवहृत होता है , कहीं-कहीं यह विचार के लिए भी प्रयुक्त होता है । वस्तुत: आचार से योग्यता और विचार से स्थिरता पैदा होती है । आचार को ही परम धर्म कहा गया है -- ' आचारो हि परमो धर्म: '। यह आचार बौद्धों के यहाँ शील बन गया । 

आचार ही उत्तम गुणों से युक्त होने पर सदाचार बना, इसी व्यवहार और आचार को सदाचार माना गया है । यह सिद्धांत रूप में स्वीकार कर लिया गया है कि आचार की शुद्धता के आधार पर जिस जाति का गठन होता है , वह निश्चय ही अधिक प्राण- शक्ति धारण करके अधिक समय तक सजीव रहती है। आर्यों ने आचार को आत्म- समर्पण करके जीवन में श्रेष्ठता का वरण नहीं किया , अपितु श्रेष्ठता को ही अपना जीवन मान लिया । 


आर्य स्वभाव से सदाचारी थे एवं आचार-निष्ठ थे । क्योंकि इन्होंने आचार के पक्ष में आत्म- समर्पण कर दिया था। यदि यह बात नहीं होती तो ईश्वर को सर्वस्व मानकर आत्मसमर्पण करने का कारण ही नहीं रह जाता। ब्रह्म गुणातीत है, किन्तु ईश्वर ऐसा नहीं है, वह अंशत: सगुण , सचेतन और प्रकृति के नियमों का नियामक है। हमारे भीतर जो अवगुण और कदाचार है ; वह प्रकृति के विकार की देन है। बुद्धि में जड़त्व है , उसमें प्रजनन - शीलता नहीं है। कोरी बुद्धि ले डूबती है। बुद्धि के साथ और कुछ चाहिए।


 आचार एवं शील - प्रक्षालित बुद्धि ही फलप्रद होती है। जीवन में आचार के महत्त्वपूर्ण स्थान को ऋषियों ने स्वीकार किया है , क्योंकि आचार - युक्त जीवन ही अनंत कामनाओं के जाल में नहीं फंसता। वह शुद्ध और विकासात्मक बना रहता है। आर्यों का आचार परिष्कृत और निर्मल था तथा उनकी कामना तथ्यों एवं सत्यों पर आधारित थीं।

सृष्टि के नियमों की सत्ता ऋत है और यही धर्म भी है, जिसने सारी सृष्टि को धारण कर रखा है । आचार ऋत और सत्य -- इन दो अवयवों का अवयवी है। हम ऋत के रूप में और सत्य के व्यक्त रूप में ही आचार को देखते हैं। ऋत अनेक प्रकार के सुख और शांति का स्रोत है तथा ऋत की भावना ही पापों को नष्ट कर देती है। प्रकृति की अनेक विकृतियों को नियमबद्ध करके उन्हें नियंत्रित रखना और आंतरिक या तात्त्विक को दृढ़ बनाये रखना ऋत का काम है । साथ ही आचार का एक अवयव होने के कारण यहाँ भी ऋत का यही काम है । इस विश्व - प्रपंच में कोई भी ऐसा द्रव्य नहीं है जो अपने ऊपर ही आधारित हो।


 धारण करने वाली शक्ति दूसरी ही है , जिसने सबको धारण कर रखा है -- वह ऋत या धर्म है । अग्नि , जल , वायु आदि सभी अपने धर्म पर स्थित हैं। धर्म का त्याग करते ही उनका अत्यंत अभाव हो जायेगा। यही कारण है कि आचार का एक प्रमुख तत्त्व ऋत है--धर्म है। सही बात यह है कि धर्माधारित आचार ही सदाचार कहा जाता है। यह आचार का व्यव्हारिक पक्ष है।


 चिंतन अपनी अंतिम कोटि में पहुँच कर भी वहां नहीं पहुँच सकता। अत: ऋषियों ने नेति- नेति कह कर ही इसको विराम दे दिया। ऋषियों ने आचार को धर्माधारित माना है और धर्म ने सत्य को धारण कर रखा है। किसने किसको धारण कर रखा है यह निर्णय करना सम्भव नहीं है ; किन्तु कहीं से तो प्रारंभ करना ही होगा और कहीं पर पहुंच कर शांत होना ही होगा। चिंतकों ने जीवन को एक शक्तिशाली साधन माना है और आचार को पहले धर्म का स्थान देकर आचार और धर्म को एक साथ मिला देना उनका दूसरा प्रयास है। धर्म पर सत्य आधारित है।&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&



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