शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2013

बच्चों को शिक्षा दी जाने लगी और बड़ों को उपदेश

भौतिकता - आध्यात्मिकता दोनों का संवर्धन 






शिक्षा का मूल तात्पर्य यही माना गया था कि वह जीवन के विशेष अंश तक ही सीमित न रहे , सम्पूर्ण जीवन को सही- सही विकास करने में गति और ऐसी दृष्टि प्रदान करे जो आर - पार देखने की क्षमता रखती है। शिक्षा के महत्त्व को ऋषियों ने जाना और उन्होंने प्रयास किया कि प्रत्येक व्यक्ति से संपर्क किया जाये। शिक्षा - प्रसार का कार्य दो भागों में विभाजित किया गया -- बच्चों को शिक्षा दी जाने लगी और बड़ों को उपदेश

 दोनों का लक्ष्य एक ही था ; जीवन के स्तर को ऊपर उठाकर उसे परिष्कृत करना। यह ध्यातव्य है कि दोनों का लक्ष्य - बिंदु एक ही था ,शिक्षा का सम्बन्ध जीवन की सम्पूर्णता से एवं उसके भौतिक तथा आध्यात्मिक विस्तार से है। जो शिक्षा धर्म को धारण की शक्ति के साथ-साथ अभुदय , श्रेय एवं सिद्धि को प्रदान करती है तथा जो भौतिकता - आध्यात्मिकता दोनों का संवर्धन करती है। वही शिक्षा श्रेष्ठ मानी गयी है। 


अन्यथा शिक्षा मात्र एक बोझ ही हो जाती है। ऐसी शिक्षा को बाँझ ही कहा जा सकता है, क्योंकि इस प्रकार की शिक्षा में उत्पादन करने की शक्ति सर्वथा अभाव होता है। केवल रोजी - रोटी का हल करने वाली शिक्षा को शिक्षा नहीं कहा जा सकता , यह शिक्षा का एक अंश मात्र है। जीवन को ऊपर उठाने की क्षमता उसमें नहीं होती , शिक्षा उस औषधि जैसी है जो रोग को समाप्त करके खुद भी पच जाती है। शरीर की जीवन- शक्ति स्वयं सजग होकर अपना काम करना प्रारंभ कर देती है। अज्ञान और शिक्षा दोनों से पूर्ण मुक्त हो जाना ही पूर्ण प्रकाश को प्राप्त करना है।

शिक्षा और अज्ञान दोनों आवरण हैं , दोनों शुद्ध एवं निर्मल चेतना आच्छादित किए रहते हैं। वास्तव में सम्यक शिक्षा की तत्त्वत: परिणति है कि वह अज्ञान का नाश करके स्वयं भी पच जाये। शरीर , मन , बुद्धि और आत्मा का समाहार मानव है। अत: शिक्षा को अंत: ज्योति का साधन माना गया था , पेट पालने तक इसे सीमित नहीं रखा गया था। वैदिक ऋषि यह मान कर चलते थे कि मानव के विकास की सीमा प्रकृति से ही निर्धारित नहीं होती अपितु यह शिक्षा से भी निधारित होती है।




 व्यक्ति की कार्य- क्षमता और प्रखरता - तेजस्विता उसकी शिक्षा पर अधिक तथा परिस्थिति पर बहुत कम निर्भर करती है। विद्या या शिक्षा एक बहुत बड़ी शक्ति है तथा इसका प्रयोग सोच- समझ कर ही होना चाहिए ; ऐसा ऋषियों का मानना था। ऋषि पागल के हाथ में तलवार देने के पक्ष में कभी भी नहीं रहे , इसलिए उन्होंने शिक्षा को सम्यक पात्र तक ही सीमित रखा। मनु के अनुसार -- आचार्य अपनी विद्या के साथ भले ही मर जाये किन्तु घोर विपत्ति होने पर इस विद्या को अपात्र को न दे। 



वैदिक शिक्षा में ब्रह्मचर्य का अत्यधिक महत्त्व था। विद्यार्थी - जीवन का प्रथम लक्ष्य यही था --' ब्रह्मचर्येण तपसा राजा राष्ट्रं वि रक्षति । आचार्यो ब्रह्मचर्येण ब्रह्मचारिणमिच्छ्ते ॥ ' अर्थात ब्रह्मचर्य के तप से राजा राष्ट्र की रक्षा करने में समर्थ होता है। ब्रह्मचर्य के द्वारा ही आचार्य शिष्यों के शिक्षण की योग्यता को अपने भीतर सम्पादित करता है। अस्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क की कल्पना नहीं की जा सकती ; मस्तिष्क की स्थिति स्वतंत्र नहीं है, वह शरीर के साथ ही है। संयमित जीवन और आहार - विहार का संयम शरीर के साथ- साथ बाह्य एवं आंतरिक वृत्तियों को भी संयमित - संतुलित रखता है। 



वैदिकयुग प्रवचन - काल था। इसमें पढ़ने और लिखने का प्रचलन नहीं था। शुद्ध रूप से प्रवचन - काल था। सुन कर स्मरण कर लेना विद्यार्थियों की पूर्ण सफलता थी। आचार्य , विषय और शिष्य इन तीनों का पूर्ण योग ही शिक्षा की पूर्णता है। इन तीनों के योग से ही एक चौथी शक्ति का विस्फोट होगा। आचार्य और शिष्य एक दूसरे में समाधित हो जाते हैं।



 एकरूप से आचार्य शिष्य की चेतना में प्रवेश करता है और शिष्य आचार्य के ज्ञान में। वैदिक युग में आचार्य का सर्वोच्च सम्मान था , वह राजा से अधिक पूज्य होता था। इसलिए यह उक्ति प्रसिद्द हो गयी की राजा अपने ही देश में पूजित होता है , जबकि विद्वान् का सर्वत्र ही सम्मान होता है। यथा --- स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ' ।*************


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