शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

अमर बनने के लिए दवा की खोज करता रहा

' यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे ' यह विश्व का मूल आधार ऋत का सिद्धांत था। ऋत का अर्थ है गति 



धर्म- मेघ समाधि में बुद्धि सत्य एवं ऋतंभरा से परिपूर्ण हो जाती है। महर्षि पतंजलि ने ऋत और प्रज्ञा दो शब्दों का प्रयोग किया है। प्रज्ञा नाम ऐसी बुद्धि का है , जो केवल ऋत अर्थात सत्य को ही पकडती है। प्रज्ञा प्रकृष्ट ज्ञानवती बुद्धि है, और सत्य अकेला होने का अनुभव है। वहां मन भी तिरोहित हो जाता है। सत्य मन के भीतर पहले से ही छिपा होता है। मन तिरोहित हो जाता है। ज्यों ही आध्यात्मिक प्रकाश हुवा , बुद्धि निर्मल हो गयी तथा वह मात्र सत्य को ही पकडती है। वेदों में ऋत शब्द का अनेक बार प्रयोग किया गया है। इसका अर्थ अस्तित्व का मूल आधार है। यह अस्तित्व का गहनतम नियम है। तत्त्व- वेत्ता ऋषियों ने प्रकृति का सूक्ष्म दृष्टि से निरीक्षण कर ब्रह्मांड पर गहन अध्ययन किया। इससे उन्हें यह निष्कर्ष प्राप्त हुवा कि जो चैतन्य हमारे शरीर के अन्दर है , वही ब्रह्माण्ड में भी है। ' यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे ' यह विश्व का मूल आधार ऋत का सिद्धांत था। ऋत का अर्थ है गति, स्पंदन या जीवन की सारभूत प्रक्रिया। इस प्रकार ऋत का अर्थ शाश्वत नैसर्गिक नियम है। इस नियम के कारण ही असंख्य सौर - मंडल नियंत्रित होते हैं। मानव जीवन का आधार भी ऋत ही है। चेतन- अचेतन प्रकृति को यह सम्भाले हुवे है। ग्रह आपस में टकराते नहीं हैं।






सूर्य का उदय होता है और वह अस्त हो जाता है। जब सूर्य अस्त होता है तो चन्द्रमा का उदय होता है। जब जन्म तो मृत्यु भी होती है। यह गति जैसी है वैसी ही बनी रहती है। इस में अन्यथा कुछ हो ही नहीं सकता। विष अपने स्थान पर विष है और अमृत मात्र अमृत है। केवल जीवन ही नहीं , अपितु मृत्यु भी इस रूप में यथार्थ दिखाई देती है। ऋतंभरा के अवतरण के क्षणों में साधक को पहली बार ज्ञात होता है कि विपरीत के होने का भी कोई अर्थ है। जन्म होता है, तो मृत्यु का होना भी आवश्यक है। यदि मृत्यु न हो तो जीवन का अनुभव भी नहीं हो सकता। बिना मृत्यु के जीवन भार - स्वरूप है।

इस सन्दर्भ में सिकंदर की एक यथार्थ कहानी है। बड़ा जीवंत व्यक्ति था सिकंदर। वह आंधी की तरह आया और तूफान की तरह वापिस लौटा। उसका खजाना हीरे - जवाहरात से परिपूर्ण था। दुनिया के सभी सुख- भोग उसे प्राप्त थे। उसके मन में एक इच्छा थी कि , इन सुखों को वह सदा भोगता रहे, वह कभी बूढ़ा और बीमार न होवे और न ही वह कभी भी मरे। वह अमर बनने के लिए दवा की खोज करता रहा। एक बार उसे एक साधू मिला , जो नदी किनारे एक झोंपड़ी में रहता था। सिकंदर के आने पर वह मस्ती से लेटा रहा , उठा नहीं। साधू ने सिकंदर से बैठने को कहा। सिकंदर ने कहा पहले दुनिया जीत लूँ , फिर बैठ जाऊंगा। साधू ने कहा कि एक दिन तो बैठना ही पड़ेगा , अभी बैठ जाओ। सिकंदर साधू कि मुख पर चमक देख कर प्रभावित हुवा। उसे लगा कि यह अवश्य ही असाधारण व्यक्ति है , सिकंदर पास बैठ गया।

सिकंदर ने साधू से कहा कि बताओ क्या ऐसी कोई दवा है , जिसे खा कर मैं कभी भी न मरूं। साधू ने कहा दवा है , यदि तुम ऐसा कुछ के सको तो अवश्य ही अमर हो जाओगे। तुम्हारा शरीर लाखों वर्षों तक जीवित रह सकता है। साधू ने उसे बताया कि एक पर्वत की गुफा में झील है , उसका पानी निर्मल और अमृत है। उस पानी को पीने के बाद तुम अमर हो सकते हो। अंत में खोजते हुवे सिकंदर उस झील पर पहुँच ही गया। ज्यों ही वह जल पीने को झुका , तो मनुष्य की भाषा में एक कौवे की आवाज उसने सुनी। कौवा बोल उठा -- थोडा ठहरो , ऐसा मत करना । भूल कर भी इस झील का पानी मत पीना। मैंने भूल की उसका फल आज तक भुगत रहा हूँ। सिकंदर ने उसे आश्चर्य से देखा और इसका कारण जानना चाहा ।

कौवे ने कहा -- ' अब मैं मर नहीं सकता और मैं मौत को गले लगाना चाहता हूँ। मेरे संगी- साथी सब दुनिया से विदा हो गये , हर वस्तु समाप्त हो गयी। वे प्रत्येक व्यक्ति जिन्हें मैं अपना दोस्त समझता था , अपना दुःख दर्द सुनाया करता था , जिन से अपना मन बहलाया करता था , मृत्यु के मुख में लीन हो चुके हैं। अब मैं किस से अपना मन बहलाऊँ ? मैंने उस अस्तित्व को पहचान लिया है , जो जीवन देता है। जो सभी के अन्दर समाया हुवा है। उसी के रहते किसी भी कर्म में सफलता या असफलता मिलती है। जीवन का रहस्य मैंने जान लिया है । मैं कोई साधारण कौवा नहीं हूँ। लोग मुझे काक-भूसंडी कहते हैं। मैं कौओं का सरदार सताईस कल्प से यहाँ बैठा हूँ। अब मैं जीवन से परेशान हूँ। संतोष इस बात का है कि मैंने श्री रामचंद्र जी का दर्शन किया है। जो कुछ जानना था जान लिया , जो होना था हो लिया , जो देखना था वह देख लिया। मेरी बुद्धि सत्य को पकड़ती है। मेरी इन्द्रियां विपरीत की ओर कभी जाती ही नहीं। अब मैं थक चूका हूँ। जीवन में कोई रस नहीं रह गया है। "



" मैंने बहुत प्रयत्न किया कि मैं परमात्मा में समा जाऊं , पर नहीं समा सका। मैंने पर्वत से सिर नीचा कर छलांग लगाई फिर भी नहीं मरा। झील में डूबने का भी प्रयत्न किया पर वह भी व्यर्थ गया। सिकंदर! तू ऐसी भूल मत करना। जल पीने से पहले इस रहस्य को समझ सको। ऐसा न हो कि तुम भी मेरी तरह  मर सको। अपना जीवन तुम्हे भार प्रतीत होने लगे। क्योंकि जीवन और मृत्यु दोनों साथ रहते हैं। जैसे ही मनुष्य संसार में पैर रखता है , उसे मृत्यु के साथ समझौता करना पड़ता है। मृत्यु कहती है कि तू संसार में जा रहा है , पर मैं ज्यों ही तुम्हें बुलाऊंगी तुम्हें लोटना पड़ेगा। अत: इस प्रज्ञा के होने पर जीवन और मृत्यु दोनों का ज्ञान हो जाता है। " सिकंदर ने मात्र जीने का ही विचार किया था , पर यदि मृत्यु  होती तो जीवन पीड़ा का कारण बन जाता। सिकंदर ने झील का पानी नहीं पीया , बिना पानी पीये ही वह वहां से लौट गया। कहने का तात्पर्य यह है कि जन्म और मृत्यु नियति का शाश्वत नियम है। यही ऋत है यही शाश्वत सत्य है। अमरता और मृत्यु दोनों ही परमात्मा के रूप हैं।&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&

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