गुरुवार, 3 अक्तूबर 2013

सत्य बोलिए पर वह हितकारी हो

सत्य बोलने वाले लोगों की वचन-सिद्धि हो जाया करती है। 


सत्य बोलिए पर वह हितकारी हो 

सत्य-धर्म, दया-धर्म का कारण है। दोषों को दूर करने वाला है। इस लोक और परलोक में सुख को देने वाला है। लोक में सत्य-वचन से किसी की तुलना नहीं की जा सकती, इसे विश्वास के साथ बोलना चाहिए। सत्यधर्म सर्वधर्मों में प्रधान है। सत्य पृथ्वी-तल पर सर्व श्रेष्ठ विधान है। सत्य, संसार सागर को पार करने के लिए पुल के समान है और यह सब जीवों के मन को सुख देने वाला है। इस सत्य से ही मनुष्य जन्म शोभित होता है। सत्य से ही पुण्य-कर्म बंधता है। सत्य से ही देवगण सेवा करते हैं। सत्य से अणुव्रत और महाव्रत होते हैं। सत्य से आपत्तियां नष्ट हो जाती हैं। नित्य ही हित-मित वचन बोलना चाहिए

हे मनुष्य ! दूसरों को बाधा-पीड़ा करने वाले वचन कभी मत बोलो। यदि वे वचन सत्य भी हों तो भी गर्वरहित हो उसे छोड़ दो, क्योंकि सत्य ही एक मात्र पररमात्मा है। वह भवरूपी अंधकार को दलन करने के लिए सूर्य के समान है। अत: उस सत्य की नित्य ही भावना करो। सत अर्थात समीचीन वचन सत्य कहलाते हैं। ये वचन अमृत से भरे हुवे हैं। मीठा प्रलाप करने वाले और धर्मशून्य वचन सदा छोडो। गर्हित, निन्दित, हिंसा, चुगली, अप्रिय, कठोर, गाली-गलौज, क्रोध, वैर आदि के वचन, आगम-विरुद्ध वचन इन सबको छोडो।

असत्यवादी लोग अपने गुरु, मित्र और बन्धुओं के साथ भी विश्वासघात करके दुर्गति में चले जाते हैं, किन्तु सत्य बोलने वाले लोगों की वचन-सिद्धि हो जाया करती है। क्रमश: सत्य के प्रभाव से दिव्य ध्वनि के स्वामी होकर असंख्य प्राणियों को धर्म का उपदेश देकर मोक्ष मार्ग का प्रणयन करते हैं। इसलिए सत्य -धर्म का आदर करना चाहिए।

संयम --- इस संसार में संयम धर्म दुर्लभ है। जो प्राप्त कर उसे छोड़ देता है , वह मूढ़मति है। वह जरा-मरण के समूह से व्याप्त इस संसाररूपी वन में परिभ्रमण करता रहता है, पुन: वह सुगति को कैसे प्राप्त कर सकता है। पाँचों इन्द्रियों के दमन से संयम होता है, कल्मषों का निग्रह करने से संयम होता है और इस परित्याग के विचार-भावों से संयम होता है। दुर्धर तप के धारण से संयम होता है। सभी जीवों की रक्षा से संयम होता है, सत तत्त्वों के परीक्षण से संयम होता है। काययोग के नियंत्रण से संयम होता है और बहुत गमन के त्याग से संयम होता है। किसी पर कृपा करने से भी संयम होता है। परमार्थ तत्त्व पर विचार करने से भी संयम होता है, संयम का अर्थ नियंत्रण या कंट्रोल है। जब हमारा ध्यान इन सब पर लहता है तो मन संयमित हो जाता है, तब इधर-उधर न भागकर सही दिशा की ओर चलता है। सच है कि यदि संयम का महत्त्व नहीं होता तो बड़े-बड़े राजा , महाराजा आदि तपस्वी को प्रणाम क्यों करते?


तप --- वह है जहाँ संग्रह अथवा परिग्रह का त्याग किया जाता है। योग में अपरिग्रह को विशेष महत्त्व दिया गया है। तप वह है जहाँ काम को भी नष्ट कर दिया जाता है। तप वह है जहाँ रागादि भाव को जीता जाता है। तप वह है जहाँ भिक्षा-वृत्ति से भोजन किया जाता है। तप वह है जहाँ अपने स्वरूप का चिन्तन किया जाता है। तप वह है जहाँ कर्मों का नाश किया जाता है। इससे परम तत्त्व की प्राप्ति की जा सकती है। परम बल को जीतना ही तप है। परम बल से ही माधव रूप प्राप्त किया जा सकता है. *********


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