शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

अपनी अंतरात्मा की ध्वनि को ईश्वर की ध्वनि के समान


 संसार में रोटी की मारामारी होगी और मानव दानव बन कर पैसे के पीछे भागेगा  



ईश्वर है या नहीं यह एक प्रश्न है। इसे अस्ति या नास्ति के रूप में जाना जाता है। ईश्वर को न मानने वाले नास्तिक कहे जाते हैं और ईश्वर को मानने वाले आस्तिक होते हैं। ईश्वर का स्वरूप ही आस्तिकता है। इस विषय में तीन भाग निहित हैं। पहला ,क्या ईश्वर है ? दूसरा ,ईश्वर -प्राप्ति की आवश्यकता और तीसरा ,उसकी प्राप्ति के उपाय ?अब इन तीनों बातों पर प्रकाश डालना चाहिये। जब हम किसी ऐसे व्यक्ति से मिलते हैं ,जिससे मिलकर हमारा चित्त अत्यंत प्रसन्न होता है और उसके खिले चेहरे से हमें स्फूर्ति मिलती है तो हम उस मनुष्य की प्रशंसा करते हुवे नहीं अघाते। निपुण डाक्टर अपने बीमार को प्रेमभरी मुस्कान से ही आधा स्वस्थ कर देता है और उसके मधुर शब्द रोगी के मन को प्रफुल्लित कर देते हैं। इसके विपरीत एक ऐसा मनहूस आदमी जो अपने दुखों की पोटली सबके सामने खोल कर बैठ जाता है, किसी को नहीं भाता। इन दो मनुष्यों में क्या भेद है और यह भेद क्यों है ? आस्तिकवाद की सारी दार्शनिकता इन्हीं प्रश्नों के उत्तर में छिपी हुयी है।


यहाँ दूसरा उदाहरण इस प्रकार है। हमें बड़ी प्यास लगी हुयी है और गर्मी की ऋतू है। हम सड़क पर जा रहे हैं। हमें रास्ते में एक गन्दा बदबूदार तालाब मिलता है। उसके पानी को न पीकर हम आगे चले जाते हैं। कुछ दूर चलकर हमें एक पानी की धारा पास के पर्वतों से आती हुयी दिखाई पड़ती है। हमारा ह्रदय खुश होने लगता है और जब पास जाकर हम उस शीतल ताजे जल को पी कर अपनी प्यास शांत करते हैं तो हमारा ह्रदय अत्यंत प्रसन्न हो जाता है। मनहूस मनुष्य के ह्रदय का जल- स्रोत सरोवर -स्रोत से सम्बन्ध छूट जाने के कारण गन्दा हो गया हैऔर उसमें बीमारी के कीटाणु पैदा हो गये हैं। इसके विपरीत बहता हुवा जल स्रोत के साथ सम्बन्ध होने के कारण निरोग और ताजा है ,जिसे पीकर मनुष्य के शरीर को शांति मिलती है। जो मनुष्य अपना सम्बन्ध अनंत स्रोत से रखते हैं , उसका ह्रदय सदा प्रसन्न रहता है, और वे स्वस्थ विचारों को समाज के सामने प्रस्तुत करते हैं। ये आस्तिक लोग हैं ,जिनके रोम-रोम से प्रकाश की रश्मियाँ निकल कर समस्त लोगों को प्रसन्न करती हैं।

प्रारंभ से ही मनुष्य उस अनंत की खोज कर रहा है, क्योंकि वह मूर्तिमान पदार्थों में रहता है और मन में वही संस्कार ठोस रूप में रहते हैं। इसी कारण अमूर्त को पाने के लिए हमें अत्यधिक कठिनाई दिखाई देती है। हम जब तक स्थूल से सूक्ष्म की ओर, ज्ञेय से अज्ञेय की ओर तथा मूर्तिमान से अमूर्त की ओर जाने का अभ्यास नहीं करेंगे , तब तक हम ईश्वर प्राप्ति के विषय को नहीं समझ सकते। जिस भगवान बुद्ध ने ईश्वर के अस्तित्व को नकार दिया , उसके करोड़ों अनुयायी उसी को ईश्वर मानकर मूर्तिपूजकों की तरह अपने मंदिरों में पूजा कर रहे हैं। क्या ईश्वर के अस्तित्व का इससे बड़ा कोई अन्य प्रमाण चाहिए ? साध सबको उसके जानने की लगी है , किन्तु मार्ग मालूम नहीं है।

अब तीसरा प्रश्न उपस्थित होता है कि ईश्वर की प्राप्ति कैसे की जाए ? जिस ईश्वर ने यह संसार बनाया है ओर जिसने ब्रह्माण्ड का एक लघु -रूप यह मानव - शरीर रचा है, उसने क्या इस शरीर के अंदर उसके जानने का कोई साधन नहीं दिया होगा ? मानव-शरीर तभी पूर्ण कलायुक्त कहा जाता है , जब इसके अन्दर विश्व की आभा को जानने के लिए भी साधन विद्यमान हो। जिन पाँचों ज्ञान-इन्द्रियों का हमें अभिमान है , उनको हम कितना जानते हैं। जिस प्रत्यक्ष प्रमाण का हम पूर्ण दावा करते हैं , उसका ज्ञान भी सीमित हो जाता है। इसलिए सत्य और यथार्थ ज्ञान के लिए किसी छठी इन्द्रिय की भी कल्पना की गयी है। इसे कोई जमीर कहता है तो कोई उसे अंतरात्मा कहता है तो कोई ईश्वर की आवाज कह कर ही संबोधित करता है। लेकिन अभिप्राय सभी का एक ही है। इसी को ही सच्चा पथ-प्रदर्शक भी स्वीकार किया गया है।


शरीर को आत्मा मानकर भोगों में पड़ी हुयी यह दुनिया कभी शांति की ओर नहीं जा सकती। मानव में बुद्धि का विकास है। उसके बल पर वह मानव अपनी इन्द्रियों की सीमा से बाहर जाकर भोगों की तलाश करेगा और उसकी तृष्णा दिन-प्रतिदिन बढती जाएगी। विश्व का यह मानव समाज उस विनाशकारी तृष्णा के वशीभूत होकर कल - कारखानों द्वारा नई-नई वस्तुओं की रचना करेगा , तब संसार में रोटी की मारामारी होगी और मानव दानव बन कर पैसे के पीछे भागेगा। आज संसार में यही हो रहा है। हमारे जीवन का उद्देश्य ईश्वर की प्राप्ति है। सत्य-ज्ञान की खोज को सामने रखने से प्राकृतिक भोगों की ओर से मनुष्य का मन हटकर ज्ञान- प्राप्ति की ओर अग्रसर होगा इब आवश्यकताओं की कमी होगी , भूख का नंगा नाच नहीं होगा। मानव देवता बनने का प्रयास करेगा। अपनी अंतरात्मा की ध्वनि को ईश्वर की ध्वनि के समान समझेगा। आस्तित्कता की भावना से ही आत्म-कल्याण एवं जगत-कल्याण संभव है।**********************


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें