शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

प्रकाशवान आत्मा प्रकाशित

साधक के शरीर और मन का मेल  जाता है 


अहंग्रह- ध्यान से अहं के ग्रहण की साधना की जाती है। यह साधना उच्च साधकों के लिए है, यदि हम परम सत्य को मैं तद्रूप होकर ग्रहण करते हैं तह ऐसी प्रतीति करते हैं तो यही अहंग्रह ध्यान है। इस ध्यान से मन लक्ष्य पर केन्द्रित हो जाता है। इस साधना में अनेक प्रकार के प्रकाश दिखाई देते हैं। कभी कुहरे के समान रूप दिखाई देगा। कभी आकाश में धूँवा-सा भरा दिखाई देगा , कभी वायु का तेज स्वर- सुनाई देगा। कभी सूर्य के समान चमकीला प्रकाश दिखाई देगा। कभी अग्नि के समान तेजस्वी प्रकाश दिखाई देगा। कभी जुगनू के समान टिमटिमाहट -सी प्रतीत होगी। कभी बिजली के समान चमक दिखाई देगी। कभी स्फटिक मणि के समान उज्जवल रूप सामने आएगा। कभी चन्द्रमा की शीतल किरणों का आभास होगा। इन सब लक्षणों द्वारा साधक जान सकता है कि उसने साधना में कितनी उन्नति की है।

योग की अग्नि में तपने के कारण साधक के शरीर और मन का  मेल जल जाता है। तब उसका जीवन दिव्य , निर्मल और प्रकाशवान हो जाता है---  तत्र रोगो  जरा  मृत्युप्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरं "। तब उसके शरीर में कोई रोग नहीं होता , वृद्धावस्था नहीं आती और न मृत्यु होती है। तात्पर्य यह कि बिना इच्छा के शरीर नष्ट नहीं होता। उसमें अनंत शक्ति प्रकट हो जाती है। शरीर हल्का हो जाता है। आलस्य , निद्रा , तन्द्रा आदि भी प्रवेश नहीं करते। भौतिक पदार्थ अपनी ओर आकर्षित नहीं करते। शरीर का वर्ण स्वच्छ हो जाता है। वाणी मधुर और सरस हो जाती है। उसके शरीर से दिव्य सुगंध फैलने लगती है। अपने जीवन से वह विश्व को सुवासित कर देता है। जैसे खान से निकले हीरे पर धूल और मिट्टी की परत जमी रहती है। पर उसे सान पर रख कर तराश दिया जाए तो वह चमक्मे लहता है। वैसे ही यद्यपि आत्मा का रूप अत्यंत स्वच्छ होता है। पर जन्म- जन्मान्तर से मन पर कर्मों की धूल पड़ी रहती है , वह मलिन- सा हो जाता है। उसका स्वरूप स्पष्ट दिखाई  नहीं देता , परन्तु जब मनुष्य साधना करता है , तब ज्ञान- रूपी गंगा- जल से उस धूल को उतार फेंकता है। परिणामत: प्रकाशवान आत्मा प्रकाशित हो उठता है। अत: अहंग्रह ध्यान ' अहं ब्रह्मास्मि ' का ही स्वरूप है। अहं और ब्रह्म से तद्रूपता ही उस प्रकाशमय बना देती है।&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें