मंगलवार, 8 अक्तूबर 2013

जैसा शरीर वैसा मन होता है

अभ्यास की निरन्तरता ही सफलता की कुंजी 




अभ्यास की निरन्तरता ही सफलता की कुंजी है। जितनी -जितनी निरंतरता होगी ,उतनी गहराइयों में उतरते चले जायेंगे। अपने साँस को देखना शुरू करने पर , साँस को देखते-देखते साँस का स्पर्श होने लगेगा। साँस का स्पर्श देखने पर ,फिर कोई संवेदना उत्पन्न होने लगेगी । संवेदना को देखने पर ,फिर शरीर के भीतर जो और सूक्ष्म अवस्थाएं ,उनकी अनुभूति होने लगेगी। यह निरंतरता का ही फल है। अनुभ्तियों की ओर गहराइयों तक जाने के लिए , यह नैरन्तर्य - अभ्यास बहुत काम देता है। इस अभ्यास हेतु मौन रहना बहुत आवश्यक है।



 मौन मात्र वाणी का ही नहीं होता , अपितु यह मौन काया एवं मन का भी मौन होता है। इसे ही आर्य-मौन कहा गया है। नैरन्तर्य-अभ्यास केलिए आर्य मौन अति-आवश्यक है। वाणी ओर काया का मौन रखने पर ही मन का मौन हो सकेगा। गहरी नींद से प्राप्त नहीं होता , उससे अधिक आराम मन को समसाधना में नैरन्तर्य- अभ्यास को बनाये रखना है। दिन-रात मौन रह कर ही साधना करनी होती है। जो भी कार्य कर रहे हैं,उन्हें पूर्ण सजगता के साथ जानना होगा। 



साथ ही साथ शरीर में जो भी संवेदना होगी उन्हें भी जानना होगा। शरीर की कोई भी हलचल या कम्पन संवेदना ही होती है। शरीर में अनित्य -बोध के चिंतन के साथ मन में कोई थकावट नहीं होती ,अपितु चैतन्य बना रहता है। मन को इससे अच्छा अन्य कोई आराम नहीं मिलता, वह समता में स्थित ही रहे। जितना आराम मन को एक समता भरी जाग्रत अवस्था में प्राप्त हो जाता है। है। जाता है कि दुनिया सोती है और योगी जगता है। जो मन वर्तमान स्थिति को केवल द्रष्टा भाव से देख रहा है, उसे बढ़ा आराम मिल रहा है।


 जो वर्तमान स्थिति से उत्तेजित हो रहा है। व्याकुल हो रहा है। अपना संतुलन खो रहा है। उसे शांति कहाँ मिल सकती है। सारी स्थिति को तटस्थ इसी लिए कहा एवं द्रष्टा भाव से ही देखें । साथ हीअनित्य भाव एवं स्वभाव को देखना मात्र ही साधना है । अभ्यास दो तथ्यों का करना है, पहला मन को सूक्ष्म एवं सूक्ष्मतम अवस्था तक पहुंचाना है। यह जो स्थूल अवस्था से सूक्ष्म अवस्था को ओर जाने की यात्रा है, यह यथार्थ की यात्रा है।


दूसरा महत्त्व पूर्ण कार्य समता का है। तन-मन में कहीं कुछ ऐसा नहीं है , जो स्थिर है, अचल है। जरा-सा प्रकम्पन भी है तो इसी बात का द्योतक है कि उसमें कोई परिवर्तन हो रहा है। कहीं स्थायित्व नहीं है। सारा ऐन्द्रिय जगत अनित्य ,नश्वर एवं भंगुर है।है। जाता है कि दुनिया सोती है और योगी जगता है। जो मन वर्तमान स्थिति को केवल द्रष्टा भाव से देख रहा है, उसे बढ़ा आराम मिल रहा है। जो वर्तमान स्थिति से उत्तेजित हो रहा है। व्याकुल हो रहा है। अपना संतुलन खो रहा है। उसे शांति कहाँ मिल सकती है। सारी स्थिति को तटस्थइसी लिए कहा एवं द्रष्टा भाव से ही देखें ।





 साथ हीअनित्य भाव एवं स्वभाव को देखना मात्र ही साधना है । अभ्यास दो तथ्यों का करना है, पहला मन को सूक्ष्म एवं सूक्ष्मतम अवस्था तक पहुंचाना है। यह जो स्थूल अवस्था से सूक्ष्म अवस्था को ओर जाने की यात्रा है, यह यथार्थ की यात्रा है। दूसरा महत्त्व पूर्ण कार्य समता का है। तन-मन में कहीं कुछ ऐसा नहीं है , जो स्थिर है, अचल है। जरा-सा प्रकम्पन भी है तो इसी बात का द्योतक है कि उसमें कोई परिवर्तन हो रहा है। कहीं स्थायित्व नहीं है।




 सारा ऐन्द्रिय जगत अनित्य ,नश्वर एवं भंगुर है।प्रकट सत्य का भेदन कर ही परमार्थ सत्य को जाना जा सकता है। जैसा शरीर वैसा मन होता है। दुःख शरीर का ही नहीं मन का भी है। यह दुःख चित्त की एक प्रवृति है ,दुःख को भोगने के बजाय ,द्रष्टा भाव से देखने लगेंगे । ज्यों-ज्यों आसक्ति से निकलते चलेंगे , वैसे-वैसे दुःख से निकलते चलेंगे। आसक्ति ही तो दुःख है। लेकिन यह साड़ी बात अभ्यास से ही होगी। अभ्यास ही सच्चाई का दर्शन कराएगा। बुद्धि-विलास नहीं करा सकता,यह भी अभ्यास में उतरने के लिए ही होता है। तभी पूर्ण लाभ हो सकता है।अभ्यास में जहाँ बाधाएं  हैं, वहां उसके मित्र भी हैं। दे: पञ्च -मित्र .************************




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