शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

उस पुरुष का दर्शन आंतरिक ज्योति के रूप में ही

सूर्य की किरणें तिरछी होती हैं , जबकि अग्नि की लौ सदा ऊपर की ओर उठती है  

आंतरिक -ज्योति का विकास ऋतंभराप्रज्ञा के उदय होने पर होता है। उस समय सब आकृतियाँ मिट जाती हैं, जिस मंत्र का जप किया जाता है वह भी परम प्रकाश में परिवर्तित हो जाता है। स्थापत्य - कला में मंदिरों के शिखर ऊंचे क्यों बनाए जाते हैं ? मस्जिद की मीनारें तीखी क्यों बनाई जाती हैं ? गुरुद्वारे का गुम्बज गोल क्यों बनाया जाता है ? इन सब के मूल में यह रहस्य है कि ये सब परमात्मा के निवास- स्थान हैं। वैसे तो परमात्मा सब जगह विद्यमान है। पर ये सब स्थल आस्था एवं परमात्मा के केंद्र बिंदु हैं। आस्थावान व्यक्ति वहां श्रद्धा से मस्तक झुकाते हैं। वे वाणी और मन का संयम करते हुवे इन्द्रियों का निरोध करते हैं। उनके अन्दर एक विशेष शक्ति संचित होती है। सामान्य व्यक्ति की शक्ति इन्द्रिय- छिद्रों से बाहर बिखर जाती है, पर योगाभ्यासी की शक्ति बाहर नहीं जाती।

 उस शक्ति के दो रूप होते हैं --- या तो यह शक्ति दिए की लौ के समान तीखा प्रकाश बन कर ऊपर की ओर उठती है। या फिर वह प्रकाश वर्तुलाकार हो जाता है। गुरुद्वारे का गुम्बज उस वर्तुलाकार शक्ति का प्रतीक है। ईश्वर को मानने वाले लोग उस शक्ति का उपयोग परमात्मा को देखने के लिए करते हैं। जोकि ' निरंकार' या ' निराकार ' है। ' एकोंकार सत्तनाम कर्त्ता पुरुष निर्भौ निर्वैर ' , उन्हें ऐसा अनुभव होता है कि सब में एक परमात्मा है। ॐ कार उसका वाचक है। उसका नाम सदा सत्य है। वह जगत का कर्त्ता है। सभी शरीरों में उसका निवास है। वह परम पुरुष है -- " पुरि शरीरे शेते इति पुरुष:" अर्थात शरीर रूपी नगरी में वह सदा विद्यमान रहता है। जो उसको जान लेता है , वह सदा के लिए निर्भय हो जाता है। वह मृत्यु से भी नहीं डरता। साथ ही जिसे परमात्मा का ज्ञान हो जाता है , वह किसी से वैर क्यों करेगा ? वैर- विरोध तो तभी तक है , जब तक कि द्वैत है, यदि सब एक हैं , तो कौन किसको देखेगा , कौन किसको कुछ कहेगा , कौन किसकी सुनेगा , वहां सब एक हो जाता है।



इस्लाम के अनुयायी भी निराकार वादी हैं। मस्जिद के वहां आला जैसा होता है। वहां नमाज पढ़ी जाती है , नमाज का अर्थ नमस्कार होता है। मस्जिद की मीनारें तीखी इसलिए हैं कि भीतर ज्योति का उदय हो रहा  है। दिल पर सात हजार परदे पड़े हुवे हैं , सात हजार तो संकेत मात्र है। अनंत जन्मों के अनंत परदे भी हो सकते हैं। खुदा की इबादत की , साधना की , सभी परसे उतर गये। परम प्रकाश दिखाई दे गया। अग्नि- शिखा के समान ज्योति ऊपर उठी , ये मीनारें उसी का प्रतीक हैं। ईसाईयों के चर्च में क्रास का चिह्न है , ऊपर तीखापन है। यानि संसार को क्रास कर परमात्मा की लौ में अपनी लौ मिलाओ। चर्च का शिखर भी परमात्मा रूपी उभरी हुयी ज्योति का प्रतीक है। कहने का तात्पर्य यह कि अनंत परमात्मा को पहचानने के लिए अनंत रास्ते हैं। एक ही रास्ता हो तो ज्यादा भीड़ इकट्ठी हो जाएगी। परमात्मा व्यापक है , तो उसे पाने के लिए रास्ते भी व्यापक होने चाहिएं। अनंत परमात्मा के लिए अनंत रास्ते यह सहज ही है। जी जिस रास्ते से चले , वहीँ से उसे प्राप्त कर ले। जिसकी जैसी भावना या कामना हो वैसे ही उस परम तत्त्व को प्राप्त कर ले।


भारतीय संस्कृति के मंदिर भी इसी तथ्य की ओर संकेत करते हैं। इन सब के शिखर गगन - स्पर्शी और तीखे होते हैं। परम ज्योति का स्वभाव है ऊपर उठना। सूर्य की किरणें तिरछी होती हैं , जबकि अग्नि की लौ सदा ऊपर की ओर उठती है। उपनिषदों में वर्णन है कि संभवत: परम ब्रह्म अग्नि रूप हैं। इसलिए साधूसंन्यासी भगवे वस्त्र पहनते हैं। यह वर्ण अग्नि के समान लालिमा लिए हुवे रहता है। ऐसे वस्त्र पहनने का अर्थ है -- उस परमात्मा की याद सदा बनी रहे। अरुण वर्ण सूर्य की किरणों जैसा वर्ण , इसी आंतरिक ज्योति का प्रतीक है। योगाभ्यास के माध्यम से इसी ज्योति को प्रकट किया जाता है। श्रुति का वचन है-- "एषस्ते हृदयान्तरज्योति पुरुष:"। अर्थात सतत योगाभ्यास से उस पुरुष का दर्शन आंतरिक ज्योति के रूप में ही होता है।$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$


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