मंगलवार, 8 अक्तूबर 2013

"कृण्वन्तो विश्वमार्यम "

परिवर्तन तो प्रकृति का अटल सत्य है। इसके उपरांत भी आर्यों का जीवन सदैव गतिशील रहा है ।





"कृण्वन्तो विश्वमार्यम " द्वारा सम्पूर्ण विश्व को आर्य बनाने का उद्देश्य आर्यों का रहा है । आर्य शब्द विदेशी नहीं है , इसका अर्थ है -- धार्मिक , श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न , पूज्य , श्रेष्ठ , उदारचरित , शांत आदि। 'सदाचारेणैव नराणां आर्यत्वम ' अर्थात सदाचार से नरों में आर्यत्व रहता है। जिस बाट से सोना तौला जाता है , उससे हाथी नहीं तौला जाता । प्राय: ऐसा देखा जाता है कि आर्य -जाति का सही मूल्यांकन नहीं किया जाता , एक तरह से इसे तौलने के लिए सही तराजू और बाट का इस्तेमाल ही नहीं हो पाता ।



 प्रकृति - जात किसी भी द्रव्य में स्थायित्व की कल्पना नहीं की जा सकती । ईश्वर में सभी तत्त्व गुण रूप में स्थित हैं । प्रकृति की स्वाभाविक परिवर्तनशीलता के कारण आर्य जाति के आचारों और विचारों में इतना परिवर्तन आ गया कि उन्हें उनके सहज रूप में पहचानना सामान्यत: असम्भव सा ही है । वैसे पहले आर्य जाति की जीवन - संबंधी मान्यताओं को समझना चाहिए । इसके बाद आचार और विचार पर चिंतन करना चाहिए ।


 यद्यपि जीवन में ही आचार और विचार का समावेश रहता है , परन्तु ये जल , तरंग और बुलबुले के समान इतने समाविष्ट हैं कि इन्हें पृथक कर देखना सम्भव ही नहीं है । अधिक गहराई में यह पता लगाना कठिन हो जाता है कि पहले दिन है या रात। एक के बाद दूसरे का चक्कर बना हुवा है कि कौन पहला है इसका निर्णय करना बड़ा कठिन है । आचार , विचार और जीवन ये तीनों पूर्णत: समन्वित ही हैं ।युगमान के अनुसार सत , त्रेता , द्वापर और कलि के धर्म भी भिन्न- भिन्न होते हैं , ऐसा कहा जाता है।


 अपने तत्त्व रूप में धर्म स्थिर है ,क्योंकि ऋत और सत्य ने ही समस्त लोकों को धारण कर रखा है । युग - ह्रास के अनुसार बाह्य परिवर्तन तो होगा ही । यही कारण है कि जिन भावनाओं के सहारे आर्यों ने अपना विकास किया था वे आज भी गुण रूप में स्थिर हैं , परन्तु उनके बाह्य आकार में अत्यधिक परिवर्तन के कारण उनको पहचानना मूल रूप से कठिन- सा हो जाता है .



 इस युग- परिवर्तन के प्रभाव को रोकना सर्वथा असम्भव ही है। जब माया और अविद्या-ग्रस्त जीव काल - प्रवाह में पड़कर कभी इस जन्म में और कभी उस जन्म में भ्रमित रहता है तो परिवर्तन की दुर्दमनीय शक्ति से कौन बचा रह सकता है ? यह सारी रचना परिवर्तनशील है । श्रुति के अनुसार -- ' इन्द्रो मायाभि: पुरुरूप ईयते ' । अज्ञान के प्रभाव के कारण जब ईश्वर भी बहुरूप नजर आने लगता है तो भौतिक पदार्थों से क्या आशा की जा सकती है । परिवर्तन तो प्रकृति का अटल सत्य है। इसके उपरांत भी आर्यों का जीवन सदैव गतिशील रहा है ।&&&&&&'

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें