शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

आत्मा एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रविष्ट

 मनुष्य के शरीर का उद्देश्य आत्मा या परम- सत्य की खोज करना 



श्रीकृष्ण को योगीराज कहा जाता है , इन्होनें भी महर्षि पतंजलि की योग- पद्धति को ही स्वीकार किया है। इस योग-पद्धति का पहला चरण अत्यंत पवित्र और एकांत स्थान का चयन करना है। योग का अर्थ प्रथमत: इन्द्रिय- निग्रह है। यदि हम अनियंत्रित रूप से इन्द्रियों को विषय- भोग में संलग्न करेंगे और साथ ही साथ योगाभ्यास तो निश्चित रूप से हम सफल नहीं हो सकते। हम हर क्षण सूक्ष्म रूप में शरीर परिवर्तित करते रहते हैं। एक समय वह शिशु के रूप में था , बाद में बालक एवं युवा शरीर प्राप्त हुवा। इसके अनंतर वृद्ध शरीर प्राप्त होता है। वे पूर्व के शरीर कहाँ हैं ? वे अब नहीं रहे। अब उसका शरीर भिन्न है। भगवद्गीता में स्पष्ट किया गया है कि जब व्यक्ति इस शरीर का त्याग करेगा तब उसे एक अन्य शरीर स्वीकार करना होगा। व्यक्ति इस जन्म में ही कई शरीरों में परिवर्तित होता रहता है। यह प्रक्रिया सूचित करती है कि आत्मा नित्य है।

आत्मा का अस्तित्व है। इस विषय में अनेक प्रमाण न केवल वैदिक साहित्य से अपितु सामान्य जीवन से भी दिए जा सकते हैं। आत्मा है और यह आत्मा एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रविष्ट करती है। वेदांत सूत्र में कहा गया है कि मनुष्य के शरीर का उद्देश्य आत्मा या परम- सत्य की खोज करना है। इस भौतिक जगत में आध्यात्मिक सिद्धांतों की खोज के लिए ही योग- पद्धति का अभ्यास आवश्यक है।



हमारे शरीर के विभिन्न सोपान हैं , शारीरिक पक्ष,मानसिक पक्ष, बौद्धिक पक्ष और आध्यात्मिक पक्ष। वस्तुत: हमारा सम्बन्ध आध्यात्मिक पक्ष से है। जो मनुष्य शारीरिक पक्ष पर मुग्ध होते हैं , वे कुत्ते और बिल्ली आदि से श्रेष्ठ नहीं हैं। वे पशु- योनि से बाहर नहीं निकल सकें हैं। हमें यह समझना होगा कि हम शरीर नहीं हैं, हम जीवात्मा हैं। जैसे ही हम यह समझने लगें कि हम शरीर नहीं हैं, तभी ब्रह्म- साक्षात्कार की स्थिति हो जाती है। यही वास्तविक ज्ञान है। आहार, निद्रा, भय और मैथुन के ज्ञान की प्रगति करना पाशविक ज्ञान होता है। मनुष्य को परम सत्य को जानने की जिज्ञासा रखनी चाहिए।





वैदिक संस्कृति के अनुसार ब्राह्मण वही है , जो सुशिक्षित हो और आत्मतत्त्व का ज्ञान रखता हो। ब्रह्म को जानने वाला ही ब्राह्मण कहलाता है। भारतवर्ष में ब्राह्मणों को पंडित कह कर सम्बोधित किया जाता है। वस्तुत: कोई जन्मना ही ब्राह्मण नहीं हो सकते। ब्राह्मण होने कि लिए उनसे अपेक्षा की जाती है कि उन्हें ब्रह्म का ज्ञान हो तथा वे आत्मा के स्वरूप को पहचानते हों। वास्तव में जन्म से प्रत्येक व्यक्ति शूद्र ही होता है--- " जन्मना जायते शूद्र: "। प्रत्येक व्यक्ति को संस्कारित किया जाता है। वह गुरु के पास जाता है , जो दूसरे जन्म की मान्यता के रूप में उसे यज्ञोपवीत प्रदान करते हैं। पहला जन्म उसका माता- पिता से होता है। दूसरा आध्यात्मिक गुरु एवं वैदिक ज्ञान से। यही दूसरा जन्म कहलाता है। इसके अनंतर शिष्य को वेदों का अध्ययन केता है तथा वह अनुभूत करता है कि आत्मा क्या है? परमात्मा के साथ उसका क्या सम्बन्ध है ? इसके बाद ही वह ब्राह्मण हो जाता है।%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें