शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

जिसका बहुमत होता है , उसी की ही जीत

मनुष्य के विचार ही मनुष्य को सुखी और दुखी बनाते हैं  



सत विचारों की महत्ता का अनुभव तो हम करते हैं , पर उनकी दृढ़ता नहीं रह पाती। जब कोई अच्छी पुस्तक पढ़ते या सत्संग-प्रवचन सुनते हैं तो इच्छा होती है कि इसी अच्छे मार्ग पर चलें, पर जैसे ही प्रसंग पलटा कि दूसरे प्रकार के पूर्व अभ्यस्त विचार मस्तिष्क पर अधिकार जमा लेते हैं। और वही पुराना घिसा-पिटा कार्यक्रम पुन: चलने लगता है। इस प्रकार उत्कृष्ट बनाने की आकांक्षा एक कल्पना मात्र बनी रहती है। उसके चरितार्थ होने का अवसर प्राय: आने ही नहीं पाता। जिसका बहुमत होता है , उसी की ही जीत होती है। बहती गंगा में यदि थोड़ा मैला पानी पड़ जाए तो उसकी गन्दगी प्रभावशाली नहीं होगी, पर यदि गंदे नाले में थोड़ा गंगा-जल डाला जाए तो उसे पवित्र नहीं बनाया जा सकेगा। इसी प्रकार यदि मन में अधिक समय तक बुरे विचार भरे रहेंगे तो थोड़ी देर , थोड़े -से अच्छे विचारों को स्थान देने से भी कितना काम चलेगा ? उचित यही है कि हमारा अधिकांश समय इस प्रकार बीते जिससे मनुष्य के विचार ही मनुष्य को सुखी और दुखी बनाते हैं  



सत विचारों की महत्ता का अनुभव तो हम करते हैं , पर उनकी दृढ़ता नहीं रह पाती। जब कोई अच्छी पुस्तक पढ़ते या सत्संग-प्रवचन सुनते हैं तो इच्छा होती है कि इसी अच्छे मार्ग पर चलें, पर जैसे ही प्रसंग पलटा कि दूसरे प्रकार के पूर्व अभ्यस्त विचार मस्तिष्क पर अधिकार जमा लेते हैं। और वही पुराना घिसा-पिटा कार्यक्रम पुन: चलने लगता है। इस प्रकार उत्कृष्ट बनाने की आकांक्षा एक कल्पना मात्र बनी रहती है। उसके चरितार्थ होने का अवसर प्राय: आने ही नहीं पाता। जिसका बहुमत होता है , उसी की ही जीत होती है। बहती गंगा में यदि थोड़ा मैला पानी पड़ जाए तो उसकी गन्दगी प्रभावशाली नहीं होगी, पर यदि गंदे नाले में थोड़ा गंगा-जल डाला जाए तो उसे पवित्र नहीं बनाया जा सकेगा। इसी प्रकार यदि मन में अधिक समय तक बुरे विचार भरे रहेंगे तो थोड़ी देर , थोड़े -से अच्छे विचारों को स्थान देने से भी कितना काम चलेगा ? उचित यही है कि हमारा अधिकांश समय इस प्रकार बीते जिससे उच्च भावनाएं हमारी मनोभूमि में विचरण करती रहें।


अच्छाई में भी अपनी शक्ति एवं विशेषता होती है , पर वह प्रभावशाली तभी बनती है जब मन , वचन और कर्म में एकता हो। मनुष्य के विचार ही मनुष्य को सुखी और दुखी बनाते हैं। जिस मनुष्य के विचार उसके नियन्त्रण में हैं , वह सुखी है पर जिसके विचार उसके नियन्त्रण में नहीं रहते , वह सदा दुखी रहता है। विचारों को अनुकूल बनाना ही पुरुषार्थ है। विचार अभ्यास से अनुकूल और प्रतिकूल होते हैं। जो मनुष्य जिस प्रकार के विचारों का अभ्यासी हो जाता है, उसके मन में उसी प्रकार के विचार बार-बार आते हैं। अपने विचारों को अपनी अंतरात्मा के अनुशासन में चलने दीजिए। अंतरात्मा की स्फुरणा को ध्यान पूर्वक सुनो एवं पूर्ण श्रद्धा- पूर्वक उनका अनुसरण करो। जब विचार अंतरात्मा की पवित्र गोद में पलकर वस्तु-जगत में प्रकट होते हैं तो मनुष्य की अभूतपूर्व उन्नति होती है। तभी उसकी अंतर्दृष्टि एवं अंतर्ज्ञान का पूर्ण विकास होता है।


सद्विचारों को उगने में पूरे परिश्रम के साथ जुटना पड़ता है और पोषण की सभी सुविधाओं एकत्रित करना पड़ता है। बबूल चाहे जहाँ उग आते हैं, पर संतरे उगाने के लिए पूरी सतर्कता से काम लेना होता है। सद्विचारों की कृषि करना ही मूल्यवान खेती है। जो उसमें सफल होते हैं , वे समृद्ध , सम्पन्न और सुसंस्कृत बनते हैं। स्वास्थ्य प्रधानतया आहार और व्यायाम पर निर्भर है। ठीक उसीप्रकार मानसिक परिमार्जन के लिए स्वाध्याय और सत्संग का आश्रय लिया जाना चाहिए। पुस्तकें पढ़ते रहना स्वाध्याय नहीं है, अपितु इस प्रयोजन के लिए मात्र उसी साहित्य की आवश्यकता होती है जो जीवन की वास्तविक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर सके। मनन और चिन्तन भी प्रकारांतर से स्वाध्याय और सत्संग की आंशिक आवश्यकताएँ पूरी करते हैं। विचार संसार की सबसे महान शक्ति है, किन्तु असंगठित , अव्यवस्थित और कोरे काल्पनिक किताबी विचार केवल दिल-बहलाव और मनोरंजन की मात्र सामग्री हैं। हमारी सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि हम उन विकारों को क्रियात्मक स्वरूप प्रदान नहीं करते। उनको जीवन व्यतीत करने का मौका नहीं देते। पुस्तकों में वर्णित स्वर्ण-सूत्रों को कार्य रूप में परिवर्तित करने के लिए प्रयत्नशील नहीं होते, उनके अनुसार जीवन को नहीं मोड़ते । शिक्षाओं पर दत्तचित्त , एकाग्र, दृढ़तापूर्वक अमल नहीं करते। शस्त्रीय विधियों का का पूर्ण मन लगाकर अभ्यास नहीं करते, अपने आचरण को उनके अनुसार नहीं बनाते। केवल पढ़कर या जानकर ही संतुष्ट हो जाते हैं।

हम केवल एकाग्रचित्त होकर उत्तम विचारों को कार्यरूप में प्रकट करना सीख लें। यह जन्म ही हमारी सर्वोत्कृष्ट कृति है। इसे इष्ट कार्य में लगाने से अभूतपूर्व सफलता प्राप्त होती है। विचार तथा कर्म के उचित सामंजस्य द्वारा ही मनुष्य को ध्येय की प्राप्ति होती है। उत्तम कार्य , उचित उद्योग और निरंतर साधना-युक्त हो , ऐसे सक्रियात्मक विचार ही उत्तम जीवन का निर्माण करते हैं, वे कर्म ही मनुष्य को ऊपर उठाते हैं। कर्म की भावना पर मन की समस्त वृत्तियाँ क्रन्द्रित करने से हम में कार्यशक्ति अवश्य जागृत होगी। जब हमारे विचार बलवान बनेंगे तब वे कर्म में प्रकट होकर ध्येय की ओर ले जा सकते हैं। विचारों से ही जीवन सफल हो सकता है। डाला जाए तो उसे पवित्र नहीं बनया जा सकेगा। इसी प्रकार यदि मन में अधिक समय तक बुरे विचार भरे रहेंगे तो थोड़ी देर , थोड़े -से अच्छे विचारों को स्थान देने से भी कितना काम चलेगा ? उचित यही है कि हमारा अधिकांश समय इस प्रकार बीते जिससे उच्च भावनाएं हमारी मनोभूमि में विचरण करती रहें।


अच्छाई में भी अपनी शक्ति एवं विशेषता होती है , पर वह प्रभावशाली तभी बनती है जब मन , वचन और कर्म में एकता हो। मनुष्य के विचार ही मनुष्य को सुखी और दुखी बनाते हैं। जिस मनुष्य के विचार उसके नियन्त्रण में हैं , वह सुखी है पर जिसके विचार उसके नियन्त्रण में नहीं रहते , वह सदा दुखी रहता है। विचारों को अनुकूल बनाना ही पुरुषार्थ है। विचार अभ्यास से अनुकूल और प्रतिकूल होते हैं। जो मनुष्य जिस प्रकार के विचारों का अभ्यासी हो जाता है, उसके मन में उसी प्रकार के विचार बार-बार आते हैं। अपने विचारों को अपनी अंतरात्मा के अनुशासन में चलने दीजिए। अंतरात्मा की स्फुरणा को ध्यान पूर्वक सुनो एवं पूर्ण श्रद्धा- पूर्वक उनका अनुसरण करो। जब विचार अंतरात्मा की पवित्र गोद में पलकर वस्तु-जगत में प्रकट होते हैं तो मनुष्य की अभूतपूर्व उन्नति होती है। तभी उसकी अंतर्दृष्टि एवं अंतर्ज्ञान का पूर्ण विकास होता है।


सद्विचारों को उगने में पूरे परिश्रम के साथ जुटना पड़ता है और पोषण की सभी सुविधाओं एकत्रित करना पड़ता है। बबूल चाहे जहाँ उग आते हैं, पर संतरे उगाने के लिए पूरी सतर्कता से काम लेना होता है। सद्विचारों की कृषि करना ही मूल्यवान खेती है। जो उसमें सफल होते हैं , वे समृद्ध , सम्पन्न और सुसंस्कृत बनते हैं। स्वास्थ्य प्रधानतया आहार और व्यायाम पर निर्भर है। ठीक उसीप्रकार मानसिक परिमार्जन के लिए स्वाध्याय और सत्संग का आश्रय लिया जाना चाहिए। पुस्तकें पढ़ते रहना स्वाध्याय नहीं है, अपितु इस प्रयोजन के लिए मात्र उसी साहित्य की आवश्यकता होती है जो जीवन की वास्तविक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर सके। मनन और चिन्तन भी प्रकारांतर से स्वाध्याय और सत्संग की आंशिक आवश्यकताएँ पूरी करते हैं। विचार संसार की सबसे महान शक्ति है, किन्तु असंगठित , अव्यवस्थित और कोरे काल्पनिक किताबी विचार केवल दिल-बहलाव और मनोरंजन की मात्र सामग्री हैं। हमारी सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि हम उन विकारों को क्रियात्मक स्वरूप प्रदान नहीं करते। उनको जीवन व्यतीत करने का मौका नहीं देते। पुस्तकों में वर्णित स्वर्ण-सूत्रों को कार्य रूप में परिवर्तित करने के लिए प्रयत्नशील नहीं होते, उनके अनुसार जीवन को नहीं मोड़ते । शिक्षाओं पर दत्तचित्त , एकाग्र, दृढ़तापूर्वक अमल नहीं करते। शस्त्रीय विधियों का का पूर्ण मन लगाकर अभ्यास नहीं करते, अपने आचरण को उनके अनुसार नहीं बनाते। केवल पढ़कर या जानकर ही संतुष्ट हो जाते हैं।

हम केवल एकाग्रचित्त होकर उत्तम विचारों को कार्यरूप में प्रकट करना सीख लें। यह जन्म ही हमारी सर्वोत्कृष्ट कृति है। इसे इष्ट कार्य में लगाने से अभूतपूर्व सफलता प्राप्त होती है। विचार तथा कर्म के उचित सामंजस्य द्वारा ही मनुष्य को ध्येय की प्राप्ति होती है। उत्तम कार्य , उचित उद्योग और निरंतर साधना-युक्त हो , ऐसे सक्रियात्मक विचार ही उत्तम जीवन का निर्माण करते हैं, वे कर्म ही मनुष्य को ऊपर उठाते हैं। कर्म की भावना पर मन की समस्त वृत्तियाँ क्रन्द्रित करने से हम में कार्यशक्ति अवश्य जागृत होगी। जब हमारे विचार बलवान बनेंगे तब वे कर्म में प्रकट होकर ध्येय की ओर ले जा सकते हैं। विचारों से ही जीवन सफल हो सकता है।******


करती रहें।


अच्छाई में भी अपनी शक्ति एवं विशेषता होती है , पर वह प्रभावशाली तभी बनती है जब मन , वचन और कर्म में एकता हो। मनुष्य के विचार ही मनुष्य को सुखी और दुखी बनाते हैं। जिस मनुष्य के विचार उसके नियन्त्रण में हैं , वह सुखी है पर जिसके विचार उसके नियन्त्रण में नहीं रहते , वह सदा दुखी रहता है। विचारों को अनुकूल बनाना ही पुरुषार्थ है। विचार अभ्यास से अनुकूल और प्रतिकूल होते हैं। जो मनुष्य जिस प्रकार के विचारों का अभ्यासी हो जाता है, उसके मन में उसी प्रकार के विचार बार-बार आते हैं। अपने विचारों को अपनी अंतरात्मा के अनुशासन में चलने दीजिए। अंतरात्मा की स्फुरणा को ध्यान पूर्वक सुनो एवं पूर्ण श्रद्धा- पूर्वक उनका अनुसरण करो। जब विचार अंतरात्मा की पवित्र गोद में पलकर वस्तु-जगत में प्रकट होते हैं तो मनुष्य की अभूतपूर्व उन्नति होती है। तभी उसकी अंतर्दृष्टि एवं अंतर्ज्ञान का पूर्ण विकास होता है।


सद्विचारों को उगने में पूरे परिश्रम के साथ जुटना पड़ता है और पोषण की सभी सुविधाओं एकत्रित करना पड़ता है। बबूल चाहे जहाँ उग आते हैं, पर संतरे उगाने के लिए पूरी सतर्कता से काम लेना होता है। सद्विचारों की कृषि करना ही मूल्यवान खेती है। जो उसमें सफल होते हैं , वे समृद्ध , सम्पन्न और सुसंस्कृत बनते हैं। स्वास्थ्य प्रधानतया आहार और व्यायाम पर निर्भर है। ठीक उसीप्रकार मानसिक परिमार्जन के लिए स्वाध्याय और सत्संग का आश्रय लिया जाना चाहिए। पुस्तकें पढ़ते रहना स्वाध्याय नहीं है, अपितु इस प्रयोजन के लिए मात्र उसी साहित्य की आवश्यकता होती है जो जीवन की वास्तविक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर सके। मनन और चिन्तन भी प्रकारांतर से स्वाध्याय और सत्संग की आंशिक आवश्यकताएँ पूरी करते हैं। विचार संसार की सबसे महान शक्ति है, किन्तु असंगठित , अव्यवस्थित और कोरे काल्पनिक किताबी विचार केवल दिल-बहलाव और मनोरंजन की मात्र सामग्री हैं। हमारी सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि हम उन विकारों को क्रियात्मक स्वरूप प्रदान नहीं करते। उनको जीवन व्यतीत करने का मौका नहीं देते। पुस्तकों में वर्णित स्वर्ण-सूत्रों को कार्य रूप में परिवर्तित करने के लिए प्रयत्नशील नहीं होते, उनके अनुसार जीवन को नहीं मोड़ते । शिक्षाओं पर दत्तचित्त , एकाग्र, दृढ़तापूर्वक अमल नहीं करते। शस्त्रीय विधियों का का पूर्ण मन लगाकर अभ्यास नहीं करते, अपने आचरण को उनके अनुसार नहीं बनाते। केवल पढ़कर या जानकर ही संतुष्ट हो जाते हैं।

हम केवल एकाग्रचित्त होकर उत्तम विचारों को कार्यरूप में प्रकट करना सीख लें। यह जन्म ही हमारी सर्वोत्कृष्ट कृति है। इसे इष्ट कार्य में लगाने से अभूतपूर्व सफलता प्राप्त होती है। विचार तथा कर्म के उचित सामंजस्य द्वारा ही मनुष्य को ध्येय की प्राप्ति होती है। उत्तम कार्य , उचित उद्योग और निरंतर साधना-युक्त हो , ऐसे सक्रियात्मक विचार ही उत्तम जीवन का निर्माण करते हैं, वे कर्म ही मनुष्य को ऊपर उठाते हैं। कर्म की भावना पर मन की समस्त वृत्तियाँ क्रन्द्रित करने से हम में कार्यशक्ति अवश्य जागृत होगी। जब हमारे विचार बलवान बनेंगे तब वे कर्म में प्रकट होकर ध्येय की ओर ले जा सकते हैं। विचारों से ही जीवन सफल हो सकता है। डाला जाए तो उसे पवित्र नहीं बनया जा सकेगा। इसी प्रकार यदि मन में अधिक समय तक बुरे विचार भरे रहेंगे तो थोड़ी देर , थोड़े -से अच्छे विचारों को स्थान देने से भी कितना काम चलेगा ? उचित यही है कि हमारा अधिकांश समय इस प्रकार बीते जिससे उच्च भावनाएं हमारी मनोभूमि में विचरण करती रहें।


अच्छाई में भी अपनी शक्ति एवं विशेषता होती है , पर वह प्रभावशाली तभी बनती है जब मन , वचन और कर्म में एकता हो। मनुष्य के विचार ही मनुष्य को सुखी और दुखी बनाते हैं। जिस मनुष्य के विचार उसके नियन्त्रण में हैं , वह सुखी है पर जिसके विचार उसके नियन्त्रण में नहीं रहते , वह सदा दुखी रहता है। विचारों को अनुकूल बनाना ही पुरुषार्थ है। विचार अभ्यास से अनुकूल और प्रतिकूल होते हैं। जो मनुष्य जिस प्रकार के विचारों का अभ्यासी हो जाता है, उसके मन में उसी प्रकार के विचार बार-बार आते हैं। अपने विचारों को अपनी अंतरात्मा के अनुशासन में चलने दीजिए। अंतरात्मा की स्फुरणा को ध्यान पूर्वक सुनो एवं पूर्ण श्रद्धा- पूर्वक उनका अनुसरण करो। जब विचार अंतरात्मा की पवित्र गोद में पलकर वस्तु-जगत में प्रकट होते हैं तो मनुष्य की अभूतपूर्व उन्नति होती है। तभी उसकी अंतर्दृष्टि एवं अंतर्ज्ञान का पूर्ण विकास होता है।


सद्विचारों को उगने में पूरे परिश्रम के साथ जुटना पड़ता है और पोषण की सभी सुविधाओं एकत्रित करना पड़ता है। बबूल चाहे जहाँ उग आते हैं, पर संतरे उगाने के लिए पूरी सतर्कता से काम लेना होता है। सद्विचारों की कृषि करना ही मूल्यवान खेती है। जो उसमें सफल होते हैं , वे समृद्ध , सम्पन्न और सुसंस्कृत बनते हैं। स्वास्थ्य प्रधानतया आहार और व्यायाम पर निर्भर है। ठीक उसीप्रकार मानसिक परिमार्जन के लिए स्वाध्याय और सत्संग का आश्रय लिया जाना चाहिए। पुस्तकें पढ़ते रहना स्वाध्याय नहीं है, अपितु इस प्रयोजन के लिए मात्र उसी साहित्य की आवश्यकता होती है जो जीवन की वास्तविक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर सके। मनन और चिन्तन भी प्रकारांतर से स्वाध्याय और सत्संग की आंशिक आवश्यकताएँ पूरी करते हैं। विचार संसार की सबसे महान शक्ति है, किन्तु असंगठित , अव्यवस्थित और कोरे काल्पनिक किताबी विचार केवल दिल-बहलाव और मनोरंजन की मात्र सामग्री हैं। हमारी सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि हम उन विकारों को क्रियात्मक स्वरूप प्रदान नहीं करते। उनको जीवन व्यतीत करने का मौका नहीं देते। पुस्तकों में वर्णित स्वर्ण-सूत्रों को कार्य रूप में परिवर्तित करने के लिए प्रयत्नशील नहीं होते, उनके अनुसार जीवन को नहीं मोड़ते । शिक्षाओं पर दत्तचित्त , एकाग्र, दृढ़तापूर्वक अमल नहीं करते। शस्त्रीय विधियों का का पूर्ण मन लगाकर अभ्यास नहीं करते, अपने आचरण को उनके अनुसार नहीं बनाते। केवल पढ़कर या जानकर ही संतुष्ट हो जाते हैं।

हम केवल एकाग्रचित्त होकर उत्तम विचारों को कार्यरूप में प्रकट करना सीख लें। यह जन्म ही हमारी सर्वोत्कृष्ट कृति है। इसे इष्ट कार्य में लगाने से अभूतपूर्व सफलता प्राप्त होती है। विचार तथा कर्म के उचित सामंजस्य द्वारा ही मनुष्य को ध्येय की प्राप्ति होती है। उत्तम कार्य , उचित उद्योग और निरंतर साधना-युक्त हो , ऐसे सक्रियात्मक विचार ही उत्तम जीवन का निर्माण करते हैं, वे कर्म ही मनुष्य को ऊपर उठाते हैं। कर्म की भावना पर मन की समस्त वृत्तियाँ क्रन्द्रित करने से हम में कार्यशक्ति अवश्य जागृत होगी। जब हमारे विचार बलवान बनेंगे तब वे कर्म में प्रकट होकर ध्येय की ओर ले जा सकते हैं। विचारों से ही जीवन सफल हो सकता है।******


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