शनिवार, 12 अक्तूबर 2013

वर्तमान शिक्षा उपभोक्तावादी संस्कृति कों ही पुष्ट

शिक्षा के मुख्यत: तीन आयाम हैं- आजीविका,समाज और जीवन प्रधान  


शिक्षा के मुख्यत: तीन आयाम हैं--- आजीविका प्रधान , समाज प्रधान और जीवन प्रधान । वर्तमान शिक्षा पद्धति में जीवन सर्वथा उपेक्षित है, समाज गौण है और आजीविका जीवन के प्रत्येक पक्ष पर बलवती है। " सा विद्या या विमुक्तये " अर्थात विद्या वह है , जो जीवन और जगत की समस्याओं का समाधान करे। मनुष्य कों अपनी पहचान दे , सृजन - चेतना कों जगाये और जीवन - मूल्यों की अभिप्रेरणा दे। पर स्थिति इसके सर्वदा विपरीत है।

 आज का मनुष्य जीवन नहीं , मजबूरियां जी रहा है। शिक्षा का परिणाम है अज्ञान कों मिटाना , कर्तव्य- बोध कों जगाना और विवेक चेतना कों बढ़ाना। पर आज देश में डाक्टरों , इंजीनियरों , वैज्ञनिकों आदि की वृद्धि हुयी है , अपितु सुसंस्कृत मनुष्यों या नैतिक व्यक्तित्वों का निर्माण नहीं हो सका। इसलिए शिक्षा के साथ- साथ अपराधों में भारी वृद्धि हुयी है। वर्तमान शिक्षा उपभोक्तावादी संस्कृति कों ही पुष्ट कर रही है। इस शिक्षा कों रोजगार से जोड़ा गया , जीवन मूल्यों से पृथक रखा ।

 शिक्षा कों उद्देश्यपूर्ण बनाया जाना चाहिए। ताकि वह चरित्र का निर्माण कर सके। जिस शिक्षा के माध्यम से हर समस्या का समाधान खोजा जाना था ; आज वह शिक्षा स्वयं समस्या बन गयी है। शिक्षा - नीति का उद्गम - स्थल शिक्षा - दर्शन होना चाहिए ; सरकारी तन्त्रकिसी भी रूप में नहीं होना चाहिए। वस्तुत:अर्थशास्त्र की भी अपनी भ्रांतियां हैं। अर्थशास्त्र का पूरा चक्र -- इच्छा , महत्वाकांक्षा , अर्थार्जन और भोग पर आधरित है।

 भोग की निष्पत्ति त्रासदी है , भोगवादी संस्कृति से समाज या राष्ट्र का भला नहीं हो सकता। भावनात्मक तनावों के कारण आज आयु भी कम होती जा रही है। इसप्रकार अच्छी आजीविका का विकास होने पर भी जीवन दयनीय बनता जा रहा है। इसलिए अब भोग कों सीमित करने का प्रयास किया जा रहा है। मनीषियों ने शिक्षा के द्विआयामी रूपों पर बल दिया है-- ग्रहण- शिक्षा और आसवन- शिक्षा ; इसको आधुनिक भाषा में सैद्धांतिक और प्रायोगिक शिक्षा कह सकते हैं।

 सृजनशील समाज के लिए शिक्षा का सृजनशील होना आवश्यक है। प्रयोगधर्मिता के बिना वह सृजनात्मक नहीं हो सकती। केवल पुस्तकीय ज्ञान से व्यक्तित्वों का निर्माण नहीं हो सकता। इस द्विआयामी शिक्षा कों ही समग्र शिक्षा कहा जा सकता है। व्यक्ति-शिक्षण और व्यवहार - शिक्षण बाह्य शिक्षा है तो निसर्ग - शिक्षण आंतरिक शिक्षा है। दोनों मिलकर ही शिक्षा कों पूर्णता प्रदान करते हैं। विचारों का जीवन के साथ कोई सामंजस्य नहीं है। जिन विचारों का प्रत्यक्ष जीवन से कोई समबन्ध नहीं होता , वे निर्जीव होजाते हैं। आज विद्यार्थी जीता है घर में और विचार कों विद्यालय में सीखता है


आज की शिक्षा निष्क्रिय, प्रभावहीन और अव्यावहारिक होती जा रही है। यथा--त: स्पष्ट है कि एकांगी शिक्षा के स्थान पर समग्र शिक्षा स्थापित की जाये। अधुना उपभोक्तावाद के स्थान पर  " ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है , इच्छा क्यों पूरी हो मन की । एक- दूसरे से न मिल सकें , यह विडंबना है जीवन की ॥ " अअध्यात्म और भौतिक विज्ञानं के स्थान पर जीवन के व्यावहारिक पक्ष कों मान्यता प्रदान की जानी  चाहिए। जीवन विज्ञानं का अर्थ है कि शरीर ,मन और वाणी कों प्रशिक्षित करना। वस्तुत: यही शिक्षा कि पूर्ण एवं सम्पूर्ण धारणा है। इसीलिए शिक्षा कों अंधकार से प्रकाश , असत से सत तथा मृत्यु से अमरता की दिशा में प्रस्थान स्वीकार किया गया है -- " तमसो मा ज्योतिर्गमय ,असतो मा सदगमय , मृत्योर्मा अमृतं गमय " ।&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&



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