गुरुवार, 3 अक्तूबर 2013

धर्म ; विषय रूपी विष को अमृत

गर्भ में ही आयु , धन , विद्या और मौत का समय निश्चित  





सारान्शत: परमात्मा एक है , उसका रूप विशुद्ध प्रकाश है। उसके संकल्प से सारा संसार प्रकट हो गया। पहले सूक्ष्म परमाणु बने फिर पांच महाभूत उत्पन्न हुवे। इन सबके मिश्रण से शरीर निर्मित हुवे। पशु , पक्षी , कीट-पतंग , मानव-दानव आदि आकृतियाँ तैयार हुयीं। इनके साथ मन , बुद्धि , इन्द्रियां आदि संलग्न हुयीं। कर्मों के चुम्बक से आत्मा के साथ शरीर चपक गये। गर्भ में आते ही स्पंदन पैदा हुवा। साँस चलने लगी। प्रकृति के पिंजरे में जीव बंद हो गया। सुख-दुःख की अनुभूति होने लगी। गर्भ में ही आयु , धन , विद्या और मौत का समय निश्चित हो गया। थे तो विराट , पर शरीर के दायरे में आते ही सीमित हो गये।


जड़- चेतन की गांठ पड़ गयी। जो अपने संकल्प से पैदा की अपनी प्रकृति थी , जिसको अपने ही अन्दर रहने का स्थान दिया था; उसी ने अपने स्वामी पर अधिकार कर लिया। मालिक की दशा ठीक वैसी हो गयी जैसे उसके चारों ओर मिट्टी लपेट दी जाये। मिट्टी में लिपटे हीरे की चमक दिखाई नहीं देती , वैसे ही शरीर में लिपटने से आत्मा की चमक धुंधली पड़ जाती है। बुद्धि पर अज्ञान का पर्दा पड़ जाता है , जीव इससे मोहित हो जाता है। कौन-सा उपाय है कि जीव प्रकृति के घेरे से बाहर निकले और उसे जन्ममरण से छुटकारा मिल जाए।

यह परमात्मा की कृपा है कि हम मनुष्य बन गये। प्रकृति के प्रवाह में बह रहे थे , एक घाट मिल गया। अब हमें अपने ऊपर अपनी ही कृपा करनी चाहिए। छलांग लगाइए , योगाभ्यास द्वारा मानसिक शक्ति अर्जित कीजिए। स्वयं हमारे अन्दर इतनी शक्ति है कि हम हिमालय को भी पटक सकते हैं। उस शक्ति को हम खा - पीकर , सोकर या व्यर्थ के कार्यों में नष्ट कर देते हैं। यह बुद्धिमत्ता नहीं है। उस शक्ति का उपयोग हम परमात्मा के ध्यान में लगायें। हमारी ईश्वर में श्रद्धा और धर्म में आस्था होनी चाहिए। धर्म विषय रूपी विष को अमृत बना देता है। बुराई से बचें और इच्छाओं का शमन करें। हमें मन की वासनाओं को पोंछने का प्रयास करना चाहिए। अन्दर-बाहर से हम अपने को इतना सुन्दर बना लें कि परमात्मा भी हमें देख कर प्रसन्न हो जाए। मलिन- मन व्यक्ति न तो परमात्मा को देख पाता है और न परमात्मा ही उसकी ओर देखते हैं। संसार में कोई क्या कहता है और क्या करता है , इसकी चिंता हमें नहीं करनी चाहिए। इन बातों का पता लगाने से अशांति के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलेगा। शरीर के अन्दर परमात्मा ने अत्यंत संवेदनशील हृदयरूपी यन्त्र लगा रखा है, बुराई के प्रवेश करते ही वह झंकृत हो उठता है और मन अशांत हो उठता है। परिणामत: हम लक्ष्य से दूर चले जाते हैं।

मांस- मदिरा या किसी भी नशे का सेवन हमें नहीं करना चाहिए। अन्यथा हमारे चिंतन - ज्ञान की धारा निम्न स्तर की हो जाएगी। हमारे जीवन का एक लक्ष्य होना चाहिए। हमारा कोई सिद्धांत होना चाहिए। हमारा कोई इष्ट होना चाहिए। संसार में रहते हुवे परमात्मा को विस्मृत नहीं करना चाहिए। कुछ देर ही सही पर उस प्रभु का ध्यान अवश्य करना चाहिए , इससे तनाव निश्चित ही कम होता है। हमें विषय रूपी विष की उपेक्षा करनी चाहिए और आत्म- ज्ञान रूपी अमृत का पान करना चाहिए। इस सन्दर्भ में एक उदाहरण द्रष्टव्य है-- एक मछुवा जाल में मछलियाँ फंसा रहा था। उसने सरोवर में जाल फेंका , मछलियाँ दूर भागीं और जाल में फंस गयीं। एक मछली बड़ी चतुर थी , वह मछुवे के पैरों के पास घूमती रही। अब मछुवा अपने पैरों को तो जाल में फँसाएगा नहीं , पैरों के पास होने से वह मछली भी जाल में नहीं फंसी , उसकी रक्षा हो गयी। वैसे ही जिस परमात्मा ने यह माया का जाल फैलाया है , उसके चरणों से सट जाओ तो मोह- माया के जाल में नहीं फंसेंगे एवं मृत्यु के भय से रक्षा ही जाएगी।

एक अन्य उदाहरण --- एक महिला चक्की पीस रही थी , उसने गेहूँ चक्की में डाले। गेहूँ में घुन थे। चक्की के चलते ही गेहूँ के साथ घुन भी पिसने लगे। उसमे से एक घुन चक्की की कील पर चिपक गया , वह घुन बच गया। वैसे ही जो जीव भगवान के चरणों की शरण में आ जाता है , वह माया की चक्की में पिसने से बच जाता है। यह माया नदी बड़ी दुस्तर है , इसको पार करना बड़ा ही कठिन है। इस नदी को खाली करना सम्भव नहीं है। अत: माया के जाल के कारण जन्म- जन्मान्तरों तक भटकना पड़ेगा। इस चक्कर से मुक्त होने के लिए या तो अंतर में स्थित आत्मा का ध्यान हमे करना चाहिए अथवा साक्षात् प्रभु की भक्ति करनी चाहिए। फिर ही द्वैत मिट सकता है, क्योंकि ब्रह्म को जानने वाला स्वयं ब्रह्म हो जाता है।

पहले हमें मानव बनने का प्रयास करना चाहिए , मानव से ही देवता बन सकते हैं और देवतासे भगवान् हो सकते हैं। हमें छोटी-छोटी बातों से विचलित नहीं होना चाहिए। यदि हमारे पास छोटा-सा घर है , छोटा कमरा है , जीवन- उपयोगी वस्तुओं कि कमी है , तो हमें अपने को किसी भी रूप में छोटा नहीं समझना चाहिए। मन को विशाल बनाने का प्रयास करना चाहिए। तुच्छ और संकीर्ण विचारों को मन से निकाल देना चाहिए। सदा प्रसन्न रहने का प्रयास करना चाहिए। यथाशक्ति असहाय की सहायता कीजिए। दुखी के मन को सांत्वना एवं उसकी सहायता करते रहिए। यह भी एक प्रकार से परमात्मा कि ही पूजा है। हमें जीवन में ईश्वर और धर्म को स्वीकार करते हुवे उसके प्रति समर्पित होने का प्रयत्न करना चाहिए। बस यही पूर्णता का परिचायक है, तभी मैं और परम तत्त्व एकाकार हो सकते हैं एवं द्वैत- भाव नष्ट हो सकता है।******



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