गुरुवार, 3 अक्तूबर 2013

मायावी पुरुष के व्रत और तप सब निरर्थक

 ऋजु अर्थात सरलता का भाव आर्जव है 


जैसा अपने मन में विचार किया जाए , वैसा ही दूसरों से कहा जाए और वैसा ही कार्य किया जाए। इस प्रकार से मन-वचन-काय की सरल प्रवृत्ति का नाम ही आर्जव है। ऋजुता से ही आर्जव की स्थिति है। यह धर्म का उत्तम लक्षण है तथा यह मन को स्थिर करने वाला है एवं सुख का उत्पादक है। इसलिए इस भव में आर्जव धर्म का आचरण और पालन करना चाहिए। मन से माया के समस्त शूलों को निकाल देना चाहिए। मायावी पुरुष के व्रत और तप सब निरर्थक हैं।

 यह आर्जव भाव ही मोक्षपुरी का सीधा उत्तम मार्ग है। आर्जव धर्म परमात्मा-स्वरूप है, संकल्पों से रहित है, चिन्मय आत्मा का मित्र है, शाश्वत और अभयरूप है। जो निरंतर उसका ध्यान करता है , वह संशय का त्याग कर देता है और पुन: अचल पद को प्राप्त कर लेता है।

मन-वचन-काय की सरलता का नाम आर्जव है। अर्थात मन-वचन-काय को कुटिल नहीं करना है। ऋजु अर्थात सरलता का भाव आर्जव है। अन्यथा मायाचरण से अनन्तों कष्टों को देने वाली तिर्यंच योनि मिलती है। दुर्योधन ने पांडवों के प्रति मायाचरण करके लाख के घर में उन्हें भेजा, पुन: लोभी ब्राह्मण को धन देकर उस मकान में आग लगवा दी। पांडव अपने पुण्य से बच निकले। किन्तु दुर्योधन की निंदा आज तक हो रही है। अत: मायाचरण का त्याग करके सरल परिणामों द्वारा अपनी आत्मा की उन्नति और ऊर्ध्वगति करनी चाहिए।

शौच -धर्म--- यह शौच धर्म मन की शुद्धि से होता है। शौच-धर्म वचन रूपी धन की बुद्धि की दृढ़ पकड़ से होता है। शौच धर्म कषायों और कल्मषों के अभाव से होता है और यह शौच धर्म जीवों को पापों से लिप्त नहीं करता है। शौच धर्म लोभ का वर्जन करता है शौच धर्म उत्तम तप के मार्ग में लगाता है। उत्तम शौच धर्म ब्रह्मचर्य के धारण करने से होता है। शौच धर्म आत्मा के गुणों को सतत मनन करने से होता है। यह धर्म शल्यों के त्याग करने से होता है और यह धर्म निर्मल भावों के ग्रहण करने से होता है। संसार को अनित्य समझकर एकाग्र मन से इसका पालन करना चाहिए। यह सुख के मार्ग का सहायक और शिवपद का दायक है। शुचि पवित्रता का भाव शौच है।

शुद्धि के मख्य रूप से दो भेद हैं -- बाह्य और आभ्यन्तर जल आदि से बाह्य शरीर आदि के मल का नाश होता है और लोभ कल्मष आदि के त्याग से अन्तरंग की पवित्रता होती है। गंगा आदि तीर्थों में स्नान से यदि पाप-मल धुलते होते तो सारे मगरमच्छ मोक्ष चले जाते। पापमल को धोने के लिए धर्म-तीर्थ में ही स्नान करना होगा। निर्धन धन को प्राप्त न करके दुखी होते हैं और धनी लोग भी तृप्त न होकर दुखी रहते हैं। बड़े कष्ट की बात है कि संसार में सभी दुखी हैं, बस एक साधू ही सुखी है। आशारूपी भावना इतनी विशाल है कि उसमें सारा विश्व अणु के समान प्रतीत होता है। फिर बताओ यदि सब को इस विश्व का बंटवारा करके दिया जाए तो किसके हिस्से में कितना भाग आएगा ?


भूमि से निकला हुवा जल शुद्ध है, पतिव्रता स्त्री पवित्र है। धर्म में तत्पर राजा भी पवित्र है और ब्रह्मचारी-गण सदा ही पवित्र रहते हैं। साधक स्नान आदि करते हैं और धर्म के द्वारा आत्मा की भी शुद्धि करते हैं। तृष्णा रूपी अग्नि को संतोषरूपी जल से ही शांत किया जा सकता है। जो ग्रहण करने की इच्छा करने वाले हैं वे नीचे गिरते हैं। और जो अनासक्त रहते हैं वे ऊंचे उठते हैं। जैसे तुला के दो पलड़ों में से जिसमें अधिक भार होता है तो वह नीचे जाता है और हल्का पलड़ा ऊपर उठ जाता है। इन सब उदाहरणों को समझकर अपनी आत्मा को शौच धर्म द्वारा पवित्र और शुद्ध बनाना चाहिए।*******************


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