शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2013

पंच -मित्र हैं- श्रद्धा , पुरुषार्थ ,स्मृति, समाधि एवं प्रज्ञा

जब क्षण-क्षण , प्रतिक्षण दीर्घ समय तक जागरूकता बनी रहे  



पंच -मित्र हैं- श्रद्धा , पुरुषार्थ ,स्मृति, समाधि एवं प्रज्ञा। ये सभी मित्र साधना में सहायक होते हैं। पहला मित्र श्रद्धा है। श्रद्धा तो अभ्यास की आधार शिला है। जब तक श्रद्धा के साथ विवेक है, ज्ञान है,समझ है, तब तक वह अंध नहीं है। श्रद्धा आँखें हैं,तो विवेक चरण है। तभी श्रद्धा फलदायी है। यदि श्रद्धा विवेक के साथ है, समझ के साथ है, सम्यक-दृष्टि के साथ है,तो हमारा बहुत कल्याण करती है; और यदि वह मिथ्या - दृष्टि के साथ है, तो कल्याण की अपेक्षा हानी ही करती है।

दूसरा मित्र पुरुषार्थ है, इसे प्रयत्न , प्रयास, वीर्य एवं पराक्रम कहते हैं। हमारा तीसरा मित्र स्मृति है। स्मृति का अर्थ मात्र याद ही नहीं होता , अपितु स्मृति का अर्थ प्राचीन समय में जागरूकता एवं सावधानता होता था। सावधानता एवं जागरूकता वर्तमान के प्रति ही हुवा करती है, भूत काल के प्रति नहीं। भविष्य के प्रति भी नहीं। भूत-काल की तो याद आ सकती है। भविष्य काल की कल्पनाएँ एवं कामनाएं ही हो सकती हैं। सावधानता वर्तमान के प्रति ही हो सकती है। यह अभ्यास ही वर्तमान में जीने का प्रयास है। वर्तमान के क्षण - क्षण के प्रति जागरूक रहने का प्रयास है। जितना हो सके ,इस वर्तमान के यथाभूत के साथ चलने का अभ्यास करना चाहिए। 


हमारा चौथा मित्र समाधि है। जब क्षण-क्षण , प्रतिक्षण दीर्घ समय तक जागरूकता बनी रहे , तब वह सम्यक - समाधि होती है। हमारा पांचवा सर्वोत्तम मित्र प्रज्ञा है। सारे दुखों को दूर करने वाली यह प्रज्ञा ही है। शेष तो सभी सहायक हैं। प्रज्ञा सभी स्थिति एवं परिस्थितियों में चित्त का संतुलन बनाये रखती है। यह समता बनाये रखती है। द्रष्टा-भाव से प्रज्ञा के अनित्य स्वभाव को देखते हैं। यही विपश्यना का अभ्यास ही प्रज्ञा है। इस प्रकार ये पञ्च -मित्र हमारा कल्याण करने वाले हैं । परिणामत : चित्त निर्मल होता जायेगा । "जीवन में आते रहें , पतझड़ और वसंत । दोनों में समता रहे , होय दुखों का अंत ॥ श्रद्धा तो जागे मगर ,छूटे नहीं विवेक । श्रधा और विवेक से , मंगल जगें अनेक ।। इति =+


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