रविवार, 6 अक्तूबर 2013

प्रभु के प्रति समर्पण ही समाधि

 ध्यान पहली अवस्था है और समाधि बाद की अवस्था या व्यवस्था 



वह ध्यान ही ' समाधि ' हो जाता है, जिस समय केवल ध्येय स्वरूप का ही ध्यान रहता है और अपने स्वरूप के भान का आभाव- सा रहता है। ध्यान करते- करते जब योगी का चित्त ध्येयाकार को प्राप्त हो जाता है और वह स्वयं भी ध्येय में तन्मय-सा बन जाता है। ध्येय से भिन्न अपने आप का ज्ञान उसे नहीं रह जाता है , उस स्थिति का नाम समाधि है--- " तदेवार्थमात्रनिर्भासम स्वरूपशून्यमिव समाधि: " । ध्यान में ध्याता , ध्यान , ध्येय तीनों की एकरूपता रहती है। ऐसी समाधि जब स्थूल पदार्थों में होती है , तब उसे ' निर्वितर्क ' कहते हैं और सूक्ष्म पदार्थ में होती है तो उसे ' निर्विचार ' कहते हैं। यह समाधि सांसारिक पदार्थों में होने से तो सिद्धिप्रद होती है , पर यह आध्यात्मिक विषय में हानिकारक है। किन्तु यह समाधि ईश्वर-विषयक होने से मुक्ति प्रदान करती है। इसलिए कल्याण चाहने वाले पुरुषों को अपने इष्टदेव परमात्मा के स्वरूप में ही समाधि लगानी चाहिए। इसमें पूर्णता होने पर अर्थात उपर्युक्त योग के आठों अंगों के भली- भांति अनुष्ठान से मल और आवरण आदि दोषों के क्षय होने पर , विवेक ख्याति पर्यंत ज्ञान की दीप्ती होती है और उस विवेक ख्याति से अविद्या का नाश होकर कैवल्य पद की प्राप्ति अर्थात आत्म - साक्षात्कार होता है।


जब योग के अंगों का अनुष्ठान किया तब मन निर्मल और स्थिर हो गया। पहले मन कांपता था, एकरूपता होने से आत्मा भी कांपता हुवा दिखाई देता था , अब मन स्थिर हो गया , एकमात्र आत्मा ही उसका केंद्र- बिंदु हो गया , इसी स्थिरता का नाम ही समाधि है -- " समाधीयते अस्मिन्निति समाधि: "। अब हमें घर का एक कोना या कमरा स्थिर के लेना चाहिए। यहाँ बैठ कर मन को समाहित करने का प्रयास करना चाहिए , बिलकुल अकेले हो जाइये। मन सर्वथा खाली करने का प्रयास कीजिए। मन में कोई सम्बन्ध - सम्बन्धी नहीं होना चाहिए। हम अकेले होंगे तभी मन निर्मल होगा। एवं मन की चंचलता दूर होगी। तभी इस मानस ह्रदय की झील का संसार स्थिर होगा। चित्त निर्मल और निस्तब्ध होता चला जायेगा। यही निस्तब्धता आत्मानुभूति का क्षण होगी। इस स्थिरता में विचार धीरे- धीरे नष्ट होते चले जायेंगे। तभी हम अपने को पहचानने का प्रयास कर सकते हैं। मैं कौन हूँ इस प्रश्न का उत्तर भी स्वयं मिलता चला जाएगा। धीरे-धीरे सभी प्रश्नों का समाधान होता चला जायेगा। प्रश्न हमने खड़े किए हैं , इनका उत्तर भी स्वयं अपने आप ही मिलता जायेगा। धैर्य की बहुत आवश्यकता है। मन को सांसों पर केन्द्रित करने का प्रयास कीजिए। साँस प्राण बनते जायेंगे , हम ऊर्जावान बनते जायेंगे।

महर्षि पतंजलि ने समाधि और ध्यान में अंतर माना है। ध्यान साधना की वह अवस्था है , जहाँ भीतरी अभिव्यक्तियाँ समाप्त हो जाती हैं। ध्यान पहली अवस्था है और समाधि बाद की अवस्था या व्यवस्था है। योग के आठ अंगों में क्रम भी ऐसा ही रखा गया है। समाधि में अविद्या अर्थात अनावश्यक ज्ञान, अस्मिता अर्थात झूठा अहंकार, राग अर्थात आसक्ति , द्वेष अर्थात वैर भाव , अभिनिवेष अर्थात आवरण रूपी कृत्रिमता आदि ये सब नष्ट हो जाते हैं। विषय- वासनाओं के प्रति आसक्ति अर्थात राग नष्ट होने लगता है। चित्त की इस पूर्ण दशा में मृत्यु का डर भी नहीं रहता , मृत्यु तो देह का ही नाश करती है, आत्मा को हानि नहीं पहुंचा सकती। मृत्यु से डर गये तो आत्म-चिंतन नहीं हो सकता। वस्तुत: समाधि का अर्थ है सम - भाव में स्थित हो जाना , कोई राग- द्वेष नहीं , कोई मेरा- तेरा नहीं। एक रूप से प्रभु के प्रति समर्पण ही समाधि है।*****




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