शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

इदं न मम

सेवा करना, प्रेम करना मनुष्य का स्वाभिक गुण है  


क्या चाहते हो ? माँगों ! भगवान ने पूछा। भक्त ने कहा कि हे भगवान ! मुझे इस चाह ने ही बर्बाद कर दिया है। जन्म-जन्मान्तर से यह बला मेरे पीछे पड़ी हुयी है। यह चाह मेरी जन्म की शत्रु हो गयी है। जन्म लेते ही मैं चाह के लिए उन्मत्त हो गया

 बाल्यावस्था की चाह जैसी कुछ थी , वह थी ही ,पर यौवन की उन्मत्त चाह मतवाली उत्कुन्ठाओं ने तो मुझे एकदम ही विस्मित करदिया। परन्तु अब डरने लगा हूँ -- इस भयानक चाह से बहुत डरने लगा हूँ। यह तो जीवन से भी अधिक भयंकर और करुणा से भी अधिक दारुण है। इसके स्पर्श से मैं कैसे बचा रह सकूंगा , देव ! यह तो एक ही संघर्ष में मुझे अपने छोटे अस्तित्व से दूर बहुत दूर के देगी। फिर यह तो एक ही दुर्दम्य प्रवाह में मेरे सारे अपनेपन को मेरी सभी सीमा को अपने में सदा के लिए खो देगी, फिर मैं अपने -अपनेपन को कहाँ रख सकूँगा।

 वह अपनापन जिसने मुझे तुम्हारा बनाया है। क्या तुम मेरी परीक्षा लेते हो ? मुझे भरमाते हो ? पर यह भी मैं कैसे कहूँ ? मुझे इसके कहने का अधिकार ही क्या है ? यदि अधिकार हो भी तो मैं यह नहीं जानता क्या कहूँ , कैसे कहूँ ? बूंद भला समुद्र को कैसे कहेगी कि तुम मेरी परीक्षा लेते हो ? उसी प्रकार देव ! मैं अस्तित्व विहीन , मैं जो कि तुम्हारे अतिरिक्त एवं तुमसे परे होकर कुछ भी नहीं हूँ , कैसे कहूँ कि तुम मेरी परीक्षा लेते हो ..... मुझे भरमाते हो। अच्छा यह भी सही। परन्तु मेरी छोटी सीमा तुम्हारी इस विराट व्यापकता को किस भांति संभाल सकेगी।

 तुम सीमाहीन होकर अपरिमित होकर अनंत हो यहाँ आते हो। देव ! तुम्हारी इस अनंत व्यापकता को अपनी परिमितता में कैसे रख सकूँगा ? निर्धन की इस सूनी कुटिया में यह वैभव , यह अनंत एवं उन्माद्कारी सौन्दर्य किस भांति रह सकेगा ? हटना होगा ,हटना होगा देव !अथवा मुझे ही अपने में अन्तर्हित कर लेना होगा ,सदा के लिया अनत काल के लिए ,जिससे फिर मैं तुम्हारे अतिरिक्त कभी भी अपना न हो सकूँ , कभी भी जन्म -जन्मान्तर में भी।

हे देव! तुम मुझे परखते हो तो परख लो। मैं उसके लिए तैयार हूँ। पर हाँ ,अपने बल-बूते पर नहीं तुम्हारी कृपा और आशीर्वाद के भरोसे। तुम मेरी परीक्षा लो , और तुम ही मुझे परीक्षा देने और उसमें उत्तीर्ण होने योग्य बनाओ। मैं तुम्हारा हूँ और तुम्हारा रहना चाहता हूँ और हाँ , तुम्हारा रहूँगा भी। मेरे उत्तीर्ण होने से मेरी-तुम्हारी दोनों की लाज रहेगी ,प्रतिष्ठा होगी , तुम्हारा नाम होगा , यश बढेगा और मेरा काम बनेगा।

 परन्तु मैं कितना मूर्ख हूँ। तुम्हारा नाम और यश कैसा ? तुम यश और कीर्ति इन सबके परे हो, इन सबसे आगे हो। लेकिन देव! इतना होने पर भी तुम क्यों मेरी परीक्षा लेते हो ? मैं तुम्हारा भक्त हूँ , तुम्हारा प्रेमी हूँ। मेरे ह्रदय में तुम्हारे लिए शुद्ध प्रेम है , अनन्य भक्ति है। क्या तुम उसे नहीं जानते , या नहीं समझते ? मेरा क्या यह भाव तुमसे छिपा है? फिर मुझे क्यों परखते हो? मुझे परीक्षा में मत डालो। मैंने तुमसे प्रेम किया, तुम्हारी भक्ति की , तुम्हारी सेवा की। 

इसका आनंद ही मुझे क्या कम है ? इसी में मैं अपने को धन्य समझता हूँ। अब मुझे अधिक किसी बात की लालसा नहीं है। क्या मैंने किसी उपहार या लोभ- लालच के लिए सेवा-वृत्ति धारण की है ? नहीं। सेवा करना, प्रेम करना मनुष्य का स्वाभिक गुण है। मैं कोई प्रेम का व्यापारी नहीं हूँ। मैंने तुम्हारी भक्ति किसी स्वार्थ या व्यापार-वृद्धि से नहीं की।

परन्तु यह विचार भी कितना भ्रामक है , तुम्हारे प्रेम में तो मेरा बहुत अधिक स्वार्थ है। वह स्वार्थ , मेरे प्रभु , तुम्हारी ही सीमा की तरह व्यापक और तुम्हारी व्यापकता की भांति विराट है। उस प्रेम में , मैं अपने सारे दुखों को, अपने सारे संतापों को , अपनी अतुलित आत्मग्लानि को भूलना चाहता हूँ।


 और इस प्रकार तुम्हारी व्यापक सीमा में अपने को सदा के लिए विलीन कर देना चाहता हूँ। मैं तुम्हारे लिए सबकुछ त्याग करना चाहता हूँ। हे! नाथ मेरा अपना है भी क्या, सबकुछ तो तुम्हारा ही है, अत; मैं त्याग भी किसका कर सकता हूँ ? मेरे पास त्याग करने के लिए भी कुछ नहीं है। ' इदं न मम' अर्थात यह शरीर , मन , आत्मा, धन - धान्य सब कुछ तो तम्हारा ही है। मुझे तो त्यागने का अधिकार भी नहीं है।&&&&&



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