रविवार, 6 अक्तूबर 2013

जिनेटिक इंजीनियरिंग

इच्छित स्तर के मनुष्यों का निर्माण __इसे जिनेटिक इंजीनियरिंग कहा जाता है । व्यक्ति यन्त्र नहीं , अपितु स्वतंत्र




इच्छित स्तर के मनुष्यों का निर्माण आज के वैज्ञानिक की विशिष्ट खोज है। इसे जिनेटिक इंजीनियरिंग कहा जाता है । मानवीय व्यक्तित्व के घटक तत्त्वों में आनुवंशिकता का अपना महत्त्व है। 

आनुवंशिकता का आधार है --- जींस और क्रोमोसोम । व्यक्तित्व - निर्माण के सन्दर्भ में जीं को समझना बहुत जरूरी है । मानवीय शरीर की सबसे छोटी और अंतिम इकाई है -- कोशिका । अरबों - खरबों कोशिकाओं से मानव -शरीर निर्मित होता है । शरीर के किसी भी अंग की कोशिका , रक्त और वीर्य की प्रत्येक कोशिका के नाभिक में कुछ अत्यंत सूक्ष्म रचनाएँ हैं , जिन्हें गुण - सूत्र या क्रोमोसोम कहते हैं । 


ये डीएन ए नामक अणुओं से निर्मित हैं । इनकी रचना धागे जैसी होती है। ये आधार कण श्रंखला- बद्ध होकर ही जीन कि रचना करते हैं। इनमें त्रुटि रह जाने पर या विपर्यास हो जाने पर आनुवंशिकता में परिवर्तन होने लगता है या अनेक प्रकार के रोगों की सम्भावना बढ़ जाती है। गुणसूत्र प्रत्येक प्राणी में अलग- अलग संख्या में पाए जाते हैं। मानव के शरीर में इनकी संख्या ४६ हैं। ये २३ जोड़ों के रूप विद्यमान रहते हैं। मनुष्य की आकृति - प्रकृति , रूप - रंग , चाल- ढाल , रहन - सहन , आचार - व्यवहार सभी का विकास या ह्रास उक्त आधार- कणों या जीन पर ही निर्भर है।


वैज्ञानिक इस स्तर पर पहुंच गए हैं कि अब सुविकसित स्तर के मनुष्यों की वैसी ही हूबहू ब्लू -प्रिंट कापियां बनाकर तैयार की जा सकेंगी। अगले कुछ वर्षों में टिश्यू कल्चर अर्थात कोशिकाओं की खेती सामान्य बागवानी की तरह होने लगेगी। निष्कर्षत: आगामी सदियों में ऐसा मनुष्य निर्मित किया जायेगा , जो पर्यावरण और प्रदूषण से अप्रभावित रह सके । हो सकता है कि नई मानवीय फसल मात्र रोबोट ही हों या फिर विनाश की ओर ले जाने वाले रक्त -बीज से उपजे असुर हों ।


 विज्ञानं द्वारा सर्जित बायो टेक्नोलोजी का यह खेल कहीं मानवता का विनाश तो नहीं कर बैठेगा ?विकृतियाँ भावात्मक परिवर्तन से आती हैं , न कि रासायनिक परिवर्तन से आत्ती हैं।वंश परम्परा की कमी हटा देने से अथवा रक्त - मांस का स्तर बदल देने से अधिक से अधिक से अधिक यह हो सकता है की शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से वह पीढ़ी परिस्थतियों के अनुरूप ढल जाये , पर आस्थाओं तथा भावनाओं की उत्कृष्टता के अभाव में वह मात्र यंत्र बनकर रह जायेगा।



 उसमें मानवता के प्रति आस्था और मानवीय वातावरण निर्मित करने की क्षमता कहाँ से आएगी ? इसके अभाव में वह क्रियाशील किन्तु भावनाहीन पीढ़ी संसार के सौंदर्य की सुरक्षा एवं समृद्धि कैसे कर सकेगी ? यदि ऐसे ही यंत्र से मानवों की खेती होगी तो इसके आगे की दुनिया विश्वसनीय कदापि नहीं हो सकती।



 अध्यात्म के मनीषी आनुवंशिकी विज्ञानं का सम्मान करते हैं , किन्तु वे अंत: संस्कार , विचार , स्वभाव आदि कों बदल कर नये आदमी के निर्माण की बात सोचते हैं । व्यक्तित्व का एक शक्तिशाली घटक तत्त्व है -- कर्म ।




 वह जीन और क्रोमोसोम से भी कई गुणा अधिक क्षमता वाला है । चेतना के विकास कि तारतम्यता का कारण कर्म से प्रभावित और अप्रभावित चित्त - दशा है । मनुष्य की भाव- धारा जितनी शुद्ध और परिष्कृत होती है , मनुष्य की आंतरिक क्षमताएं उसी रूप में विकसित होती हैं । ध्यान, कायोत्सर्ग , संकल्प - शक्ति के विकास , स्वत:- सूचना आदि पद्धतियों के प्रयोग व्यक्ति की भाव -धारा कों बदल कर उसके स्वभाव , चरित्र और व्यवहार कों बदला जा सकता है।



 इसके लिए मस्तिष्क कों प्रशिक्षित करना होता है। भाव- संस्थान मस्तिष्क का ही एक भाग है। नये व्यक्तित्व का निर्माण इस भाव- संस्थान के प्रशिक्षण पर ही निर्भर है। कोरा अध्यात्म व्यावहारिक नहीं होता। कोरा विज्ञानं खतरनाक होता है। अपेक्षा है आदमी की दृष्टि vऐज्ञानिक हो और दिशा आध्यात्मिक होनी चाहिए । संतुलित व्यक्तित्व के चार अंग -- शारीरिक विकास , बौद्धिक विकास , भावनात्मक विकास और आध्यात्मिक विकास हैं। इस अभिनव - मनुष्य का निर्माण किसी यंत्र से नहीं ; अपितु चेतना के स्वतंत्र विकास से ही सम्भव है । क्योंकि व्यक्ति यन्त्र नहीं , अपितु स्वतंत्र है ।&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&





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