गुरुवार, 10 अक्तूबर 2013

स्वयं प्रकृति व्यवस्थित

जैसे व्यवस्था का विकास होता गया तो जीवन भी व्यवस्थित होता गया।


स्वयं प्रकृति व्यवस्थित है , अत: प्रकृति - सम्भूत जो कुछ भी है , सबके भीतर एक प्रकार की व्यवस्था का रहना उचित ही है। व्यवस्था के अंतर्गत रहना जीव मात्र का स्वभावगत गुण है। मानव तो सभी जीवों से अत्यधिक विकसित है। पशु -पक्षी कुछ व्यवस्था का पालन कानून पढ़ कर या उपदेश सुनकर नहीं करते ; उनके स्वभाव में व्यवस्था पालन का तत्त्व प्रकृति भर देती है।



 क्योंकि प्रकृति स्वयं व्यवस्था के भीतर रह कर व्यवस्थित रीति से कार्य करती है। यदि कुछ विकार पैदा हो भी जाता है , तो उसे तुरंत सुधार लिया जाता है। विकार को किसी भी रूप में स्वीकार नहीं किया जाता।कभी भी आम के वृक्ष से अमरूद का फल प्राप्त नहीं किया जा सकता ; सूर्योदय को कभी भी विलम्ब से होता नहीं देखा जा सकता ; चन्द्र अपनी व्यवस्था में बंधा हुवा है ; प्रकृति का हर पदार्थ निश्चित - नियमित एवं व्यवस्थित है। 


इसमें विकल्प का कोई भी स्थान नहीं है। मानव अत्यंत सचेतन प्राणी है और कुछ तो अपनी अंत: प्रेरणा से व्यवस्था - प्रिय है साथ ही वह कुछ आवश्यकता एवं अनुभव के कारण अपने को स्व-संस्थापित व्यवस्थाओं में बंधता है। व्यवस्था का यही विकास आज के सर्वोन्नत समाज या राष्ट्र का स्वरूप है। संसार की सबसे प्राचीन पुस्तक वेदों में हम एक ऐसे मानव को देखते हैं जो जाति , समाज और राष्ट्र तक पहुँच चुका है। इस क्रम के विकास में जो - जो नियम बनाये गये , उनमें ऐसी व्यवस्था थी कि -- सभी एकदूसरे की रक्षा करें। जैसे-जैसे व्यवस्था का विकास होता गया तो जीवन भी व्यवस्थित होता गया। 



एकाकी जीवन यापन करने वाला मानव व्यवस्थित होते होते ऋषि बन अमृतत्व की कामना करने लगा। यज्ञ द्वारा ही यह सब उपलब्द्ध हुवा , जिसका नेतृत्व पुरोहित किया करते थे। आदि व्यवस्थित समूह ' यज्ञ' ही था और आदि नेता ' पुरोहित ' , जिसके सम्बन्ध में ऋग्वेद का प्रथम मंत्र है-- " अग्निमीले पुरोहितं " । यज्ञ एक उत्पादन- प्रणाली का अंग है तथा यह व्यवस्था के विकास को भी रूपायित करता है। 


यज्ञ को मात्र कल्पना या स्वर्ग - देवता मान लेने से कार्य सिद्ध नहीं हो सकता और साथ ही इससे सामाजिक जीवन का निर्माण एवं विकास भी सम्भव भी नहीं है। यज्ञ के द्वारा ही पत्नी, बच्चे , अन्न , घर , औषधियां,पशु, खेत , गाँव , समाज , सामाजिक सुव्यवस्था , जीवन और जीवन के सारे उद्देश्य उपलबद्ध होते हैं। 



यज्ञ कामधेनु है , यह कोई काल्पनिक कामधेनु नहीं है। यज्ञ एक भावना है , जो हमारे शुभ - संकल्पों को दिशा प्रदान करती है। परिणामत: धरती कामधेनु है, विद्या कामधेनु है, कर्म- योग कामधेनु है, प्रेम और बंधुत्व कामधेनु है, साहस कामधेनु है, आशा कामधेनु है, सद्भावना और सदाचार कामधेनु है। ये यज्ञ का भाव इन सबकी पुष्टि करता है। पर्याप्त उन्नतावस्था प्राप्त होने पर सुव्यवस्था ' और ' धर्म तथा मोक्ष ' की दो अलग - अलग धाराएँ प्रवाहित होने लगीं। ब्रह्म-दंड लिए ब्राह्मण और राजदंड लिए राजा दोनों ही कर- शुल्क एवं दक्षिणा के लिए तैयार दिखाई देते। कुछ दिन बाद एक त्रिदंडधारी सन्यासी का उद्भव हुवा। स्वर्ग और देवता के अनुग्रह के लिए पुरोहित और ब्राह्मण पूज्य हुवे और शांति - व्यवस्था के लिए राजा। सन्यासी इन दोनों से ऊपर अपनी स्थिति रखता है। कभी - कभी वह सामान्य जनता के साथ- साथ राजा और पुरोहित पर भी नियंत्रण रखता था।


पुरोहित राष्ट्र - संचालन में भी योगदान देने लगे। यज्ञ ने वैदिकों के जीवन को व्यवस्थित करने का प्रयास किया। ऋषियों ने यज्ञ के बल पर आर्थिक और सामाजिक गठन किया था। प्रारंभ में समस्त जनपद राजा से रहित हो भयभीत थे। धर्म में धारण करने की अद्भुत शक्ति होती है। यज्ञ से ही धार्मिक भावनाएं संगठित हुयी। राजा का सम्बन्ध ईश्वर से जोड़ दिया गया, वह धरती का ईश्वर है। मनु के अनुसार -- इन्द्र , वायु , यम , सूर्य , अग्नि , वरुण , चन्द्रमा और कुबेर आदि इन आठों देवताओं का सारभूत अंश लेकर राजा को उत्पन्न किया गया। इन देवताओं के अंशों से उत्पन्न राजा अपने तेज से सभी प्राणियों को अपने वश में रखता है। वहां सभा और समिति थी , जो सहयोग करती थीं। सभा के सदस्य ही सभी भी कहलाते थे। सभ्य अग्नि का भी पर्याय है , सभ्य अग्नि के समान प्रकाशमान और आनंदित माने जाते थे।

 व्यवस्था आघात नहीं करती , अपितु आघात सहती है। व्यवस्था से जीवन व्यवस्थित होता है और जैसे- जैसे जीवन व्यवस्थित होता जाता है ; वह उत्तरोत्तर अपने को अधिक आत्म- नियंत्रित करने के लिए नई नई व्यवस्थाओं में बांधता जाता है। कौटिल्य के अनुसार -- जो जनता मर्यादाओं में व्यवस्थित है , वर्ण -धर्म और आश्रम- धर्म का पालन करती है तथा वेदों से रक्षित है , वह सदा प्रसन्न रहती है।



 कृषि , क्षेम , सम्पन्नता और पोषण पर व्यवस्था पूर्ण रूप से आधारित है। वैदिक ऋषियों ने ऐहिक सुखों पर बल नहीं दिया , अपितु उन्होंने कल्याण , शभ और मंगल की सदा कामना की। इनकी प्रार्थना इसी प्रकार की थी-- यद भद्रं तन्न आसुव , भद्रं कर्णेभिश्रृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभियर्जत्रा:" ।**************


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