गुरुवार, 10 अक्तूबर 2013

गृहस्थ आश्रम सबसे बड़ा और ज्येष्ठ आश्रम

कर्म का आनन्द अनुभूत कर अधिक सुखी 



सभी आश्रमों में गृहस्थ आश्रम सबसे बड़ा और ज्येष्ठ आश्रम है। तीनों आश्रमवासी -- ब्रह्मचारी , वानप्रस्थी और संन्यासी सभी गृहस्थों से उपकृत होते हैं। इन्हीं गृहस्थियों के द्वारा पूजा -दान आदि धार्मिक कृत्य संपन्न होते हैं। यथा -- " गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्मात् ज्येष्ठाश्रमो गृही "। जैसे वायु का आश्रय पाकर सब प्राणी जीते हैं , वैसे ही सब आश्रम गृहस्थाश्रम का आश्रय लिए रहते हैं।


 अक्षय स्वर्ग प्राप्त करने की जिसे इच्छा हो और इस संसार में भी जो सुख चाहता हो , वह यत्नपूर्वक इस भावना से गृहस्थाश्रम का पालन करे। गृहस्थाश्रम का पालन करना दुर्बल मन और इन्द्रियों से किसी भी रूप में सम्भव नहीं है। विवाह का अर्थ विशेष वहन करना ही होता है। विशेष जिम्मेदारियों को निभाना ही विवाह है। ऋषि - ब्राह्मण , पितर , देवता , जीव- जंतु और अतिथि , ये सभी गृहस्थों से कुछ पाने की आशा रखते हैं। धर्म-पारायण गृहस्थ इन्हें हर प्रकार से संतुष्ट करते हैं।

 गृहस्थाश्रम में प्रवेश के समय ऋग्वेद का एक मंत्र आशीर्वाद के रूप में विशेषत: प्रयुक्त किया जाता है ---" इहैवस्तं मा वि यौष्टं विश्वमायुर्व्य्श्नुतं। क्रीडन्तौ पुत्रैर्नप्तृभिमेदिमानौ स्वे गृहे ॥ " अर्थात बिना किसी से विरोध किए गृहस्थाश्रम में रहो और पूर्ण आयु प्राप्त करो। पुत्र - पौत्रों के साथ खेलते हुवे तथा आनंद मनाते हुवे अपने ही घर में ही रहो और घर को आदर्श रूप बनाओ। 

घर के विषय में कहा गया है कि पृथिवी पर सब घर स्थिर रहें और वे न गिरें तथा वे नष्ट भी न हों। गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने वाले को सब के प्रति प्रीति का भाव रखना चाहिए। वह सभी को मित्र - भाव से देखे -- ' मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे ' साथ ही वह आशावादी हो और वह स्वीकारात्मक - पोजिटिव विचार को रखे। 


इसी भाव से वह कह सकता है कि -- 'सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु '। यह स्पष्ट है कि वैदिक गृहस्थ समानता के स्तर पर मिलजुल कर सुखी गृहस्थ जीवन व्यतीत करने को महत्त्व देते थे। वे गृहस्थ- जीवन को पूर्णता के साथ जीना चाहते थे। उन्होंने इसके लिए प्रेम , पारस्परिक सहयोग , मैत्री- भावना , कर्म- शीलता , उदारता पूर्ण व्यवहार आदि का ही सहारा लिया।

 परिणामत: कहा जा सकता है कि गृहस्थाश्रम एक ज्येष्ठ ही नहीं श्रेष्ठ आश्रम है। इसमें उत्तरदायित्वों का निर्वाह अत्यधिक गंभीरता एवं कुशलता के साथ करना पड़ता है। इसमें सृजन का आनन्द तो ही पर कर्म का आनन्द अनुभूत कर अधिक सुखी रहा जा सकता है।******************************


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