मंगलवार, 1 अक्तूबर 2013

हैण्ड टू माउथ

 वितरण अर्थात दान से ही वैतरणी पार 


मैनें कल कुछ लोगों को बात करते सुना , एक कहा रहा था कि आजकल hand to mouth कि स्थिति होती जा रही है। कुछ भी बचता नहीं है। यही बात मुझे सोचने को मजबूर करने लगी। आखिर यह hand to mouth होता क्या है।यह विवशता और मजबूरी हो सकती है। सीमित आय कि स्थिति हो सकती है। पर सोचते- सोचते ऐसा लगने लगा कि हैण्ड टू माउथ होना उतनी बुरी बात नहीं है , जितना कि माना जाता है।






 अपितु हैण्ड टू माउथ व्यक्ति ही महा-पुरुष बना है। जिसने संग्रह किया उसी का पतन होना शुरू हो गया।जब से जेब का विकास हुवा व्यक्ति उतना ही संग्रही होता चला गया , संग्रह की भावना बलवती होती चली गयी। कहा गया है कि नाव में पानी और घर में दाम या धन बढ़ने पर दोनों हाथ से बाहर निकलना ही सयाना या अच्छा काम है।

नहीं तो संपत्ति विपत्ति का कारण बन जाती है।हमारी भारतीय परम्परा में संग्रह करने कि प्रवृत्ति स्वीकार नहीं की गयी है। ब्राहमण को यथास्थिति में संतुष्ट रहने को कहा गया है। हमारे ऋषि -मुनि भी किसी भी प्रकार के धन-सग्रह में रूचि नहीं रखते थे। वे कमंडल रख कर भिक्षा - वृत्ति का ही आश्रय ग्रहण करते थे। वे कर- पात्री बन हाथ में ही भिक्षा प्राप्त करते थे। जैन-मुनि तो एक हाथ के चुल्लू में ही भिक्षा ग्रहण करते हैं। वितरण अर्थात दान से ही वैतरणी पार की जा सकती है।अत: हैण्ड टू माउथ होना बुरी बात नहीं है, यह जीवन का सर्वमान्य सिद्दांत होना चाहिए। इसीलिए संग्रह की प्रवृति को समाप्त कर अपरिग्रह पर विशेष बल दिया गया है। कम से कम संग्रह ही अपरिग्रह है, इसी को ध्येय बनाना चाहिए।*******************

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें