शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2013

आसन अष्टांग योग का एक भाग

एक प्रहर यानि तीन घंटे तक एक आसन से सुखपूर्वक स्थिर और अचल भाव से बैठने को आसन- सिद्धि कहते हैं  



योग में आसन अष्टांग योग का एक भाग है। आसन अनेक प्रकार के हैं। उनमें से आत्मसंयम चाहने वाले पुरुष के लिए सिद्धासन , पद्मासन और स्वस्तिकासन -- ये तीन अत्यंत उपयोगी माने गये हैं। इनमें से कोई भी आसन हो , परन्तु मेरु-दंड , मस्तक और गर्दन को सीधा अवश्य रखना चाहिए तथा दृष्टि नासिकाग्र अथवा भ्रकुटी में रखनी चाहिए। आलस्य न सतावे तो आँखें मूंद कर भी बैठ सकते हैं। जिस आसन में जो व्यक्ति दीर्घकाल तक सुख पूर्वक बैठ सके , वाही उसके लिए उत्तम आसन है--- स्थिरसुखमासनं " । शरीर की स्वाभाविक चेष्टा के शिथिल होने पर अर्थात इनसे उपराम होने पर अथवा अनंत परमात्मा में तन्मय होने पर आसन की सिद्धि होती है। कम से कम एक प्रहर यानि तीन घंटे तक एक आसन से सुखपूर्वक स्थिर और अचल भाव से बैठने को आसनसिद्धि कहते हैं। उन आसनों की सिद्धि से शरीर पूर्ण रूप से संयत हो जाता है तथा उसे शीत एवं ऊष्ण आदि की बाधा प्रतीत नहीं होती।


योग में वर्णित आसन लगाने की विधि अत्यंत वैज्ञानिक है। भारत का धर्म अध्यात्म और विज्ञान का सफल मिश्रण है। आसन में जिन वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है , वे बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं। ये बिजली की शक्ति की अवरोधक हैं , इनमें बिजली की शक्ति प्रवाहित नहीं होती। योगाभ्यासी को जमीन पर ही आसन बिछाना चाहिए । आप नित्यप्रति जिस आसन का प्रयोग करते हैं , वह आपका आसन होना चाहिए। आपको दूसरे के आसन का प्रयोग नहीं करना चाहिए। साथ ही दूसरा भी आप के आसन का प्रयोग न कर सके। दूसरों के आसन पर बैठने पर उस व्यक्ति के शरीर के परमाणु आप के शरीर में प्रवेश कर जायेंगे। उसकी बिजली की शक्ति का आपके शरीर से सम्बन्ध हो जायेगा। दोनों व्यक्तियों की विदुत- तरंगे आपस में टकराएंगी , इससे ध्यान में विघ्न होगा। समतल भूमि पर आसन बिछाना चाहिए।

 आसन  तो अधिक ऊंचा हो और  अधिक नीचा। क्योंकि यदि आसन बहुत ऊंचा हुवा तो शरीर में होने वाली बिजली की तरंगों का पृथ्वी से संपर्क टूट जायेगा। तथा यदि आसन अधिक नीचा हुवा तो आपके शरीर की शक्ति को पृथ्वी ही पी जाएगी। अत: आसन की अधिक ऊंचाई या निचाई का निषेध किया गया है।

आसन पर कैसे बैठना चाहिए , साधक का भाव कैसा होना चाहिए , इस पर भी ध्यान देना आवश्यक है। शरीर , सिर और गर्दन को सीधा समान रेखा में स्थिर कर दें , शरीर में कोई हलचल नहीं होनी चाहिए। क्योंकि बाहर की चेष्टाओं से मन की चंचलता का अनुमान होता है ।एक समय बुद्ध अपने शिष्यों को उपदेश दे रहे थे। १० हजार भिक्षु उनके सामने थे। एक भिक्षु बुद्ध के बिलकुल सामने बैठा था , ठीक सामने। उसके पाँव का अंगूठा हिल रहा था। बुद्ध ने अपना उपदेश रोक दिया। पूछा उस भिक्षु से -- ' तुम्हारे पैर का अंगूठा क्यों हिल रहा है?' भिक्षु ने कहा -- ' छोडिए इस बात को , एक छोटी- सी घटना को लेकर आपने इतना महत्त्वपूर्ण उपदेश रोक दिया।' बुद्ध ने कहा -- ' इसे छोटी घटना मत समझो , मैं तुमसे पूछ रहा हूँ कि तुम्हारे पाँव का अंगूठा हिला कैसे? इसका तात्पर्य है कि भीतर से तुम्हारा मन चंचल है। ध्यान से तुम मेरा उपदेश नहीं सुन रहे हो ।' 


यदि ब्रह्म - चिंतन करना हो तो अभेद दृष्टि से ही करना होगा। वहां जीव , जगत , ईश्वर, पत्नी, पुत्र, पौत्र कुछ दिखाई नहीं देना चाहिए। ध्यान -योग प्रक्रिया की यह पहली स्थिति है। इस पर बैठने से ऊर्ध्व- गमन के लिए द्वार खुल सकता है। अधुना बाहर के विक्षेपों की सम्भावना नहीं रहती , साथ ही द्वन्द्वों का भय भी नहीं रहता। अत: आसन का अत्यधिक महत्त्व है।&&&&&&&&&&&&&&&&&&&


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