मंगलवार, 1 अक्तूबर 2013

संतुलित- दृष्टिकोण ही सफलता का अभिन्न अंग

 मध्यम अंग जे के रहे तो तिरत न लागे बार 




संतुलित- दृष्टिकोण ही सफलता का अभिन्न अंग है। जीवन- व्यवहार के अंतर्गत संतुलित जीवन - दृष्टि स्वार्थ और परमार्थ का समन्वय साथ- साथ चलता रहता है। कठिनाई तब होती है , जब मनुष्य संकीर्ण स्वार्थपरता के शिकंजे में बुरी तरह फंस जाता है। तृष्णा आज तक किसी की पूरी नहीं हुयीं आग में ईंधन डालते रहने पर वह बुझती नहीं अपितु और भी भड़कती है। एक कामना के पूरी होते-होते दस अनेक कामनाएं उठ खड़ी होती हैं। व्यक्ति की पात्रता और क्षमता है। कहा भी गया है--- ' वासनांसि न जीर्णा:वयमेव हि जीर्णा: '। आयु भी कम है , अधिकांश समय तो सोने में, नित्य कर्म में , बचपन में , बुढ़ापे आदि में निकल जाता है। समर्थता के कुछ वर्ष ही ऐसे बचते हैं , जिन्हें या पूरी तरह तृष्णा पर न्यौछावर कर दिया जाए या फिर उस अवधि में परमार्थ को भी सम्मिलित कर लिया जाए।

वैभव किसी के साथ नहीं गया उपभोग की मर्यादा भी बहुत सीमित है। शेष बटोरा हुवा वैभव जहाँ का तहां पड़ा रह जाता है। दूसरे मुफ्तखोर ही उस कृपण की कमाई पर गुलछर्रे उड़ाते हैं। स्मरण रहे कि कर्त्तव्य - पालन और पुण्य-परमार्थ ये दोनों ही भगवान की उच्चस्तरीय आराधना में सम्मिलित किए जाते हैं। व्यक्तिवाद ही स्मस्त्त समस्याओं और अनाचारों का उद्गम है। मानवीय गरिमा का निर्वाह वहां से प्रारंभ होता है , जहाँ से वह समूहवाद या समाजवाद की नीति अपनाता है। यदि उदात्तवाद की दृष्टि से सोचा जाए तो भी उसी निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ता है, सद्गुण ही व्यक्ति की वास्तविक सम्पदा है।

 उन्हीं के आधार पर ही विविध भौतिक और आत्मिक सम्पदाएँ एवं सफलताएँ उपलब्ध होती हैं। इन सद्गुणों का अभ्यास एवं उपार्जन बिना सेवा-साधना के अन्य किसी प्रकार संभव नहीं है। मेहँदी पीसने वाले के हाथ अनायास ही लाल हो जाते हैं। सेवा-साधना ही वह प्रयोग-प्रक्रिया है, जिसे अपनाकर कोई व्यक्ति अपने गुण, कर्म और स्वभाव में उत्कृष्टता का समावेश कर सकता है। मात्र कल्पना करते रहने या सद्गुणों के सम्बन्ध में पठन-श्रवण करते रहने से मात्र जानकारी भर प्राप्त होती है। उन्हें अपनी जीवन - चर्या में उतारने के लिए परमार्थ प्रयासों को सम्मलित करना अत्यंत आवश्यक है।

चोरी-चालाकी से जिन्होंने कुछ कमाया वह दुर्व्यसनों में ही हवा की तरह उड़ा दिया गया। चोरी का माल मोरी में की कहावत प्रसिद्द है ही। स्थिरता और प्रगति का वास्तविक का लाभ तो उन्हीं को मिलता है , जो अपनी विश्वसनीयता को प्रमाणित कर देते हैं। संतुलन के साथ एकाग्रता और निष्ठां का भी अत्यधिक महत्त्व है। किसी भी कार्य को पूर्ण समग्रता के साथ करना चाहिए, जीवन में संतुलन को बनाना बहुत ही आवश्यक है।





 मध्यम-मार्ग को श्रेष्ठ मार्ग बताया गया है। कहा भी गया है-- ' मध्यम अंग जे के रहे तो तिरत न लागे बार ' । अति की सर्वत्र ही वर्जना की गयी है किसी भी कार्य की अति दुखदायी ही होती है।' एक्सेस ऑफ़ एवरीथिंग इज बैड हैबिट '। बचपन में बीजगणित पढ़ा था , उसमे संतुलन के महत्त्व को जाना था। संतुलित - दृष्टि को ही सम्यक-दृष्टि का नाम दिया गया है। अंग्रेजी का WATCH शब्द सम्यक और संतुलित दृष्टि का उद्घोषक है। W से WORD अर्थात संतुलित वाणी, A से ACTION अर्थात संतुलित कर्म, T से THUOGHT अर्थात संतुलित सोच, c से chracter अर्थात संतुलित चरित्र , H से HABIT अर्थात संतुलित स्वभाव तथा आदत । इस प्रकार संतुलित जीवन -दृष्टि ही सफलता का मूल मंत्र है ।&&&&&&&&&&&&&&&&&


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