शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2013

जीवित रहने का भाव जीवन


सौ वर्ष तक या उससे भी अधिक समय तक जीवित रहना चाहते  




जीवित रहने का भाव जीवन माना गया है । आर्यों को जीवन का विराट कहा गया है ,वे जीवन के सम्बन्ध में सदा जागरूक रहे , उन्होंने जीवन को कभी भी विकल्प नहीं माना जिससे केवल शब्द का ही ज्ञान होता है ; वस्तु का नहीं । योगसूत्र के अनुसार --' शब्द ज्ञान अनुपाती वस्तु शून्यो विकल्प: ' । आर्यों का जीवन परिनिष्ठित बुद्धि - प्रसूत एक सत्य संकल्प था ; जिसमें अनुशासन , प्रगति और श्रेयात्मक चिंतन का स्पंदन था । आर्य अपने जीवन को उस साध्य का साधन मानते थे । ' परम ' को लक्ष्य मानकर आर्यों ने अपने जीवन को उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साधन बनाया , किन्तु धरती के प्रति उनका जो कर्तव्य था , उसे वे भूले नहीं। उन्होंने पूर्णत: परिवार एवं समाज के जीव रहते हुवे अपने जीवन व्यापार को अनुशासित , संयमित और शील -प्रधान बनाया परिणामत: वे लक्ष्य के प्रति सतत गतिशील रहे । 

आर्य जानते थे कि अपने अन्दर की कुटिल प्रवृत्तियों का दमन वे स्वयं कर सकते हैं । अत: वे प्रार्थना करते हैं कि उन्हें ऐसी विचार-शक्ति प्राप्त हो ताकि वे ' दुरितानि परासुव अर्थात वे बुरी प्रवृत्तियों को दूर कर सकें । ' तमसो मा ज्योतिर्गमय ' द्वारा वह प्रकाश कि ओर बढ़ना चाहता है । 'असतो मा सद्गमय ' द्वारा वह उत्तम मार्ग का अनुसरण करना चाहता है । 'मृत्योर्मा अमृतं गमय' द्वारा मृत्यु से वह अमरता की ओर जाना चाहता है ; मृत्यु को पार कर जाना ही काल- प्रहार से ऊपर उठ जाना है। उस परमात्मा का ज्ञान ही मृत्युंजय-पद प्राप्त करा सकता है। कर्म-प्रधान जीवन ही आर्यों का जीवन था।


 ऋषि-गण यह मानते थे कि बिना कर्म के मुक्ति नहीं है। ईश्वरीय सहारा उसे ही मिलता है , जो उद्योगशील होता है । श्रम- हीन के देवता भी मित्र नहीं होते -- ' न ऋते श्रान्तस्य सख्याय देवा: ' । आसक्ति से बंधन और बंधन से विकार का विष पैदा होता है और यह विष पूरे जीवन में फ़ैल जाता है । परिणामत: अनेक जातियां नष्ट होती रही हैं । आर्यों ने जीवन का लक्ष्य अमृतत्व को स्वीकार किया । आर्यों ने अनासक्त- बुद्धि को ही महत्त्वपूर्ण माना तथा आत्मा को ब्रह्मस्वरूप ही माना -- ' स वा अयमात्मा ब्रह्म ' 



 आर्य अदीन भाव से एवं अपनी आंतरिक - बाह्य शक्तियों से शक्ति- सम्पन्न हो सौ वर्ष तक या उससे भी अधिक समय तक जीवित रहना चाहते थे -- ' अदीन: स्याम शरद: शतं , भूयश्च: शरद: शतात ' । अत: आर्यों का जीवन- सम्बन्धी आदर्श कर्ममय था । अंत: एवं बाह्य दोनों का संतुलन बनाकर विकास की ओर चलना था , धर्म का सूत्र पवित्रता में विस्तारित हो गतिशील होता है । कर्म में असमर्थ ही अधोगति को प्राप्त करते हैं , और वे ऊपर उठ ही नहीं सकते। आर्यों का परम धर्म श्रेष्ठतम भावनाओं तथा परम्पराओं की स्थापना करना था।



 इन्होंने इस भूखंड को अपना ही नाम 'आर्यावर्त ' दिया। इनकी संकल्पात्मक वृत्ति सदैव विधेयात्मक या स्वीकारात्मक ही रही है , निषेधात्मक या नकारात्मक चिंतन का सर्वथा अभाव ही रहा है । आर्य जीवन को मौज लूटने का साधन नहीं मानते ; वे ' कायानुपश्यी ' नहीं थे। इनके संकल्प एवं कर्म ज्ञान पर आधरित रहे । समता भाव को इन्होंने जीवन का आदर्श माना-- सुख -दुःख , जय- पराजय , लाभ -हानि आदि में सम- भाव बनाए रखा । भगवान कृष्ण और गौतम बुद्ध के द्वारा आर्यों के संकल्पों की घोषणा करते रहे हैं ।


 आर्यों की प्रार्थना सदैव सत संकल्पयुक्त रही है , उन्होंने बुद्धि को प्रेरित कर विचार - तत्त्व को प्रधानता दी है-- " धियो यो न: प्रचोदयात "। हमारी यह आस्थायुक्त धारणा है कि वैदिक आर्य- जीवन और आज के हिन्दू-जीवन में एकसूत्रता है। द्रव्य का नाश भले ही हो जाए , किन्तु उसके गुण का नाश नहीं होसकता । घड़ा फूट जाए , किन्तु मिटटी में तो घट्त्व तो रहेगा ही । इसी भावना के कारण आर्यत्व के शुभ संकल्प सदैव ज्योतित होते रहेंगे ।***


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