गुरुवार, 3 अक्तूबर 2013

बहुत विषयी होने पर अपने आपे में नहीं

पूर्ण में से पूर्ण निकाल दिया जाए तो भी पूर्ण ही शेष बचता है 



भौतिक दृष्टि से हम एक कागज का टुकड़ा लेते हैं और फाड़ कर उसके टुकडे- टुकडे कर देते हैं और उसे चारों ओर बिखेर देते हैं। मूल कागज कोई अस्तित्व नहीं रह जाता। पर वेदों में लिखा है कि यदि पूर्ण में से पूर्ण निकाल दिया जाए तो भी पूर्ण ही शेष बचता है। एक में से एक घटाने पर शून्य बचता है, किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से ऐसा नहीं है। आध्यात्मिक दृष्टि से एक में से एक घटाने पर एक ही शेष रहता है और एक में एक जोड़ने पर एक ही होता है।यदि अनियंत्रित इन्द्रियां अपने मनमाने प्रकार से कार्य करती हैं तो हमें समझ लेना चाहिए कि हम भयानक स्थिति में हैं। कहा जाता है कि बहुत विषयी होने पर मनुष्य अपने आपे में नहीं रहता। अपनी पहचान खो बैठता है और अपने को भूल जाता है। इन्द्रियों से उत्तेजित होकर मनुष्य अपने बच्चों और अपनी बेटी पर भी हमला कर बैठता है। सभी लोगों के लिए शास्त्रों में लिखा है कि वे एकांत में उन्हें अपनी माँ , बेटी या बहन के साथ भी नहीं बैठना चाहिए। क्योंकि इन्द्रियां इतनी प्रबल हैं कि एक बार उनके उत्तेजित होने पर व्यक्ति सब कुछ भूल जाता है।

वास्तव में ही शरीर ही सभी दुखों का कारण है। यह एक जिज्ञासा का भाव सब के मन में रहता है कि वह शरीर है या कुछ और। निश्चित रूप से व्यक्ति शरीर नहीं है, क्योंकि व्यक्ति के रूप में शरीर तो रहता है , किन्तु प्रत्येक व्यक्ति चिल्लाता है कि यह तो बेचारा चला गया। मनुष्य वहां पड़ा रहता है , फिर भी सब कहते हैं कि बेचारा वह चला गया , वह तो वहां पड़ा है। इसी समय हम अनुभव कर सकते हैं कि शरीर मनुष्य नहीं है। वास्तविक मनुष्य तो चला गया। बचपन का शरीर युवा शरीर में परिणत हुवा और इस प्रकार बचपन का शरीर चला गया। इसी प्रकार जब किशोर शरीर चला जाता है तो वृद्ध शरीर भी स्वीकार करना पड़ता है। शरीर बदल रहा है , वर्ष प्रति वर्ष ही नहीं , प्रतिक्षण बदल रहा है। किन्तु व्यक्ति फिर भी वही है। यह समझना बहुत सरल है। क्योंकि यह शरीर है , इस लिए दुःख है। प्रत्येक व्यक्ति जीवन के हर क्षेत्र में इस दुःख से निकलने के प्रयास में लगा है, कोई और काम नहीं है। राष्ट्रीय या सामाजिक रूप में , व्यक्तिगत या सामूहिक रूप में , हम सभी दुःख भोग रहें हैं और इस दुःख का कारण शरीर ही है

आत्मा नित्य है और शरीर अनित्य है। क्योंकि हमारा अस्तित्व है और आत्मा ने अनित्य शरीर का वरण किया है। इसीलिए हम दुःख भोगते हैं।तो समस्या यह है कि हम जैसे बुखार की स्थिति से निकलने का प्रयत्न करते हैं। ज्वर की स्थिति हमारा हमारा सतत जीवन नहीं है। सतत जीवन आनंदमय है किन्तु ज्वर के कारण हम जीवन का आनंद नहीं ले सकते। हमें विश्राम और औषधि की आवश्यकता होती है। हम अस्वस्थ नहीं रहना चाहते, फिर भी हम अस्वस्थ होते हैं। इसी प्रकार सदैव हमें यह जानना चाहिए कि शुद्ध आत्मा की शरीरबद्ध अवस्था एक रुग्ण-अवस्था है। और कोई यह भी नहीं जानता कि वह रोगी है तो निश्चय ही वह मूर्ख है। शास्त्रों में लिखा है कि प्रत्येक व्यक्ति मूर्ख ही जन्म लेता है।


 देहाभिमान ही मूर्खता का परिचायक है। हम आत्मा हैं यही हमारी शुद्ध पहचान है। गीता में कहा गया है कि हमारे बाहरी वस्त्र बदलते जाते हैं, ठीक उसी प्रकार शरीर भी बदलता जाता है। योग का अर्थ इस भौतिक शरीर के भाव से बाहर निकलने की प्रक्रिया है। जैसे हम बार-बार वस्त्र , जन्म और मृत्यु को प्राप्त करते हैं। यही हमारे दुखों का कारण है।सभी प्राणियों में मनुष्य को सबसे अधिक बुद्धिमान माना गया है , परन्तु वह अपनी बुद्धि का दुरूपयोग कर रहा है। वह अपनी बुद्धि का दुरूपयोग आहार , निद्रा , भय और मैथुन आदि पाशविक वृत्तियों में कर रहा है। ये शुद्धत: देहवादी प्रवृत्तियां हैं। देहभाव के कारण ही हम इनके प्रति आसक्त होते हैं। यदि हम यह विचार करें कि देह अर्थात शरीर नहीं हैं , अपितु शुद्ध आत्मा हैं, तो शरीर एवं उसकी आसक्ति से मोह- भंग हो जाएगा। परिणामत: अकारण ही अनेक अनेक प्रकार के दुष्प्रयोग से बच जायेंगे।**********



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