सोमवार, 7 अक्तूबर 2013

अविद्या से ही भाग्यवाद का जन्म

बुद्धि एवं पौरुष -हीन व्यक्तियों का सहारा भाग्य 




बुद्धि एवं पौरुष -हीन व्यक्तियों का सहारा भाग्य है। वैदिक साहित्य में कहीं भी मात्र भाग्य की चर्चा नहीं है। कोई भी जाति भाग्यवादी तभी बनती है जब उसमें पतन के तत्त्व उभरना आरंभ कर देते हैं। भाग्य ने किसी को उबारा नहीं , वह तो डूबा डालने वाला ही रोग है। यह भीतर के प्रकाश और बाहर की आशा पर कोहरे की तरह छा जाता है। वास्तव में अविद्या से ही भाग्यवाद का जन्म हुवा है। इस भाग्यवाद को उभारने का , फैलाने का, प्रभाव पैदा करने का बल अविद्या से ही प्राप्त होता है।




 भाग्यवाद किसी अदृश्य शक्ति के अधीन रहने की प्रेरणा देता है , जिस शक्ति के विषय में कहा जाता है कि वह रातों -रात किसी को कुबेर तो किसी को भिखारी बना देता है। कार्य - कारण से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है और न यह प्रकृति के विकास नियमों के अंतर्गत ही है। भाग्य चाहे जो कुछ भी हो पर वह भगवान नहीं हो सकता। ऋषियों ने ईश्वर को ही परम तत्त्व स्वीकार किया है। उसे ही इशों का परम महेश्वर और देवों का परम देव कहा गया है। श्वेताश्वतरोपनिषद के अनुसार -- ' तमीश्वराणां परमं महेश्वरं तं देवतानां परमं च दैवतं '। यह ईश स्वयं भू और सत्य है । नित्यो नित्यानां कह कर इसकी स्तुति की गयी है, यह भाग्य जैसा अनिश्चित और अचानक फूट पड़ने वाला कोई तत्त्व नहीं हो सकता।


 भाग्यवाद अविद्या से उत्पन्न है , क्योंकि यह तमोमय है। इसे किसी प्रकार भी नहीं जाना जा सकता। यही कारण है कि यह मुक्तिदाता नहीं है। विचार एवं ज्ञान को कुंठित करने वाला करने वाला है। परिणामत: यह बंधनस्वरूप है ; यह अनिश्चात्मक दशा में डाल देता है। इसी कारण भाग्यवाद पराधीनता का ही स्वरूप है तथा यह मुक्ति का कारण नहीं हो सकता। वैदिक ऋषियों ने भाग्य जैसी अर्थहीन वस्तु को अपने उदात्त विचारों का विषय नहीं बनाया। 




अविद्या ने बुद्धि- पौरुषहीन व्यक्तियों के लिए भाग्यवाद का सृजन किया , जिसका जीवन के विकास से कोई सम्बन्ध नहीं रहा। ' योगवासिष्ठ ' के अनुसार -- ' मूढै: प्रकल्पितं दैवं तत्प्ररास्तेक्षयं गता : ' अर्थात भाग्य मूर्खों की कल्पना है , जिसके भरोसे रह कर वे नष्ट हो जाते हैं। फिर भी जन- मानस में भाग्य का अपना महत्त्व है , लोग इस पर विश्वास ही नहीं अपितु अत्यधिक अंध- विश्वास करते हैं। कर्म करने के साथ- साथ फल की कामना भी बनी रहती है। इस फल की कामना को ही भाग्य कह दिया जाता है ; व्यक्ति की कामना कर्म के प्रति कम अपितु फल के प्रति आसक्ति अधिक हो जाती है।





 गीता में भी फलासक्ति को कम करके कर्म के महत्त्व को प्रतिपादित किया गया है। फल अर्थात भाग्य की कहीं भी सराहना नहीं की गयी है -- ' कर्मण्येव अधिकारास्ते मा फलेषु कदाचन ' । कर्म के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुवे श्रुति में वचन है-- ' कृतं में दक्षिणे हस्ते विजय: सव्य आहित: '। स्पष्ट: रूप से जो दायें हाथ से कर्म करता है , तो उसे बाएं हाथ में निश्चित ही विजय या फल प्राप्त होता है। यह कर्म के उपरांत फल की प्राप्ति है। बिना कर्म के फल की प्राप्ति निकम्मापन ही है। इसे भाग्य कहें या और कुछ पर इससे कुछ भी प्राप्ति सम्भव नहीं , यह निठल्लेपन का व्यवसाय ही है। बिना पुरुषार्थ के भाग्य का सृजन संभव नहीं है। जिसकी नीयत सही होती है तो उसकी नियति भी सही हो जाती है।************************************** 







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