गुरुवार, 3 अक्तूबर 2013

चरित्र-निर्माण तथा योग के साधन मूलत: अभिन्न

अस्त-व्यस्त तथा अनियमित जीवन बिताने वाला कोई भी व्यक्ति अपने चरित्र का गठन नहीं कर सकता 


श्री भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि जो अत्यधिक या अत्यल्प आहार ग्रहण करता है, उसके लिए योग नहीं है , जो अत्यधिक सोता या जागता है उसके लिए भी योग नहीं है। साथ ही जो व्यक्ति भोजन और आनन्द में संयमी है , कर्मों में संयुक्त प्रयास करने वाला है , सोने या जागने में संयमित है -- योग उसके सारे दुखों का अंत कर देता है। यथा --" युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु। युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥ " जब किसी का संयमित चित्त सभी कामनाओं से मुक्त होकर केवल आत्मा में ही प्रतिष्ठित हो जाता है तभी उसे योग-निष्ठ कहा जाता है। यथा--"यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते। नि:स्पृह: सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा॥" उपरोक्त श्लोकों में स्पष्ट रूप से योग में सफलता पाने के आकांक्षी साधकों के लिए सुनियोजित जीवन बिताने के परम महत्त्व पर बल दिया गया है। इनमें साधक को आश्वस्त करते हुवे बताया गया है कि जो लोग एक योगी का सुनियोजित , संयमित तथा संतुलित जीवन बितायेंगे, उनके समस्त दुखों का अंत हो जाएगा।

अस्त-व्यस्त तथा अनियमित जीवन बिताने वाला कोई भी व्यक्ति अपने चरित्र का गठन नहीं कर सकता। इसका सहज कारण यह है कि केवल प्रामाणिक साधनों के बारम्बार अभ्यास से ही व्यक्ति अपने अनगढ़ जीवन को एक उदात्त चरित्र के सांचे में ढाल सकता है। चरित्र-निर्माण तथा योग के साधन मूलत: अभिन्न हैं। चरित्रहीन व्यक्ति कभी योगी नहीं बन सकता। चरित्रवान बनना अथवा योगी बनना -- हमारी चाहे जो भी आकांक्षा क्यों न हो , दोनों की नींव एक सुनियोजित जीवन में ही रखी जा सकती है। वस्तुत: जीवन नियमन से ही मूल्यवान है , क्योंकि नियमन के द्वारा ही उसे मूल्य प्राप्त होता है। सुनियोजित जीवन सम्मान दिलाता है और उसकी अवहेलना पूर्ण अवनति की ओर ले जाती है। अतएव , सभी महान आचार्यों ने केवल सैद्धांतिक ज्ञान की अपेक्षा अभ्यास पर अधिक बल दिया है।


श्री रामकृष्ण परमहंस कहते हैं-- शास्त्र केवल ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग ही बताते हैं। एक बार मार्ग-उपाय जान लेने पर फिर पुस्तकों की क्या आवश्यकता ? इसके बाद तो ईश्वर -प्राप्ति के लिए स्वयं ही साधना करनी होगी। एक आदमी को अपने गाँव से चिट्ठी मिली। उसके किसी सम्बन्धी ने उसे कुछ चीजें भेजने को लिखा था। जब चींजों को खरीदने का वक्त आया , तब चिट्ठी नहीं मिल रही थी। उसने बड़ी व्यग्रता के साथ उसकी खोज आरम्भ की। बहुत से लोगों द्वारा काफी देर तक ढूँढ़ने पर चिट्ठी मिल गयी। तब उसे बड़ा आनन्द अनुभव हुवा और वह बड़ी उत्सुकता के साथ पत्र को हाथ में लेकर पढ़ने लगा। उसमें लिखे हुवे सामान को अच्छी प्रकार से स्मरण करने के बाद वह उस पत्र को छोड़ कर उनकी व्यवस्था करने में लग गया। पत्र की आवश्यकता कब तक है ? जब तक कि उसमें लिखी हुयी वस्तुओं के विषय में जान न लिया जाये। एक बार उसे जान लेने के बाद उसमें लिखी चींजों को प्राप्त करने के प्रयास में लग जाना होगा। इसी प्रकार शास्त्र हमें केवल ईश्वर तक पहुंचने के मार्ग का --- उनकी प्राप्ति के उपाय का ज्ञान ही कराते हैं। वह सब जान लेने के बाद लक्ष्य-प्राप्ति के लिए तदनुसार काम शुरू कर देना चाहिए। सदा के लिए अपने चरित्र- निर्माण रूपी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कार्य में जुट जाना ही हमारे लिए सबसे महत्त्वपूर्ण है।********************


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